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________________ जिनेश्वरकी भति] ... मोसमाला यत्नसे घरकी स्वच्छता, भोजन पकाना, शयन इत्यादि कराते हैं। स्वयं विचक्षणतासे आचरण करते हुए श्री और पुत्रको विनयी और धर्मात्मा बनाते हैं । कुटुम्बमें ऐक्यकी वृद्धि करते हैं। आये हुए अतिथिका यथायोग्य सन्मान करते हैं। याचकको क्षुधातुर नहीं रखते । सत्पुरुषोंका समागम, और उनका उपदेश धारण करते हैं। निरंतर मर्यादासे और संतोषयुक्त रहते हैं। यथाशक्ति घरमें शास्त्र-संचय रखते हैं। अल्प आरंभसे व्यवहार चलाते हैं। ऐसा गृहस्थावास उत्तम गतिका कारण होता है, ऐसा ज्ञानी लोग कहते हैं । १३ जिनेश्वरकी भक्ति जिज्ञासु-विचक्षण सत्य ! कोई शंकरकी, कोई ब्रह्माकी, कोई विष्णुकी, कोई सूर्यकी, कोई अग्मिकी, कोई भवानीकी, कोई पैगम्बरकी और कोई क्राइस्टकी भक्ति करता है । ये लोग इनकी भक्ति करके क्या आशा रखते होंगे ! सत्य–प्रिय जिज्ञासु ! ये भक्त लोग मोक्ष प्राप्त करनेकी परम आशासे इन देवोंको भजते हैं। - जिज्ञासु-तो कहिये, क्या आपका मत है कि इससे वे उत्तम गति पा सकेंगे ! सत्य-इनकी भक्ति करनेसे वे मोक्ष पा सकेंगे, ऐसा मैं नहीं कह सकता। जिनको ये लोग परमेश्वर कहते हैं उन्होंने कोई मोक्षको नहीं पाया, तो ये फिर उपासकको मोक्ष कहाँसे दे सकते हैं ! शंकर वगैरह कौका क्षय नहीं कर सके, और वे दूषणोंसे युक्त हैं, इस कारण वे पूजने योग्य नहीं । जिज्ञासु-ये दूषण कौन कौनसे हैं, यह कहिये ।। सत्य-अज्ञान, निद्रा, मिथ्यात्व, राग, द्वेष, अविरति, भय, शोक, जुगुप्सा, दानांतराय, लाभांतराय, वीयांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय, काम,हास्य, राति और अरति इन अठारह दूषणोंमेंसे यदि एक भी दूषण हो तो भी वे अपूज्य हैं । एक समर्थ पंडितने भी कहा है कि 'मैं परमेश्वर हूँ" इस प्रकार मिथ्या रीतिसे मनानेवाले पुरुष स्वयं अपने आपको ठगते हैं। क्योंकि पासमें स्त्री होनेसे वे विषयी ठहरते हैं, शस्त्र धारण किये हुए होनेसे वे द्वेषी ठहरते हैं, जपमाला धारण करनेसे उनके चित्तका व्यप्रपना सूचित होता है, ' मेरी शरणमें आ, मैं सब पापोंको हर लूंगा' ऐसा कहनेवाला अभिमानी और नास्तिक ठहरता है । ऐसी दशामें फिर दूसरेको वे कैसे पार कर सकते हैं ! तथा बहुतसे अवतार लेनेके कारण परमेश्वर कहलाते हैं, तो इससे सिद्ध होता है कि उन्हें किसी कर्मका भोगना अभी बाकी है। जिज्ञासु-भाई ! तो पूज्य कौन हैं, और किसकी भक्ति करनी चाहिये, जिससे अम्मा स्वशक्तिका प्रकाश करे ! .
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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