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________________ सगुस्ताल] मोक्षमाला सातवीं व्यवहारदया-उपयोगपूर्वक और विधिपूर्वक दया पालनेका नाम 'व्यवहारदया' है। आठवीं निश्चयदया-शुद्ध साध्य उपयोगमें एकता भाव और अभेद उपयोगका होना 'निश्चयदया ' है। इस आठ प्रकारकी दयाको लेकर भगवान्ने व्यवहारधर्म कहा है। इसमें सब जीवोंके सुख, संतोष और अभयदान ये सब विचारपूर्वक देखनेसे आ जाते हैं। __ दूसरा निश्चयधर्म-अपने स्वरूपकी भ्रमणा दूर करनी, आत्माको आत्मभावसे पहचानना, 'यह संसार मेरा नहीं, मैं इससे भिन्न, परम असंग, सिद्ध सदृश शुद्ध आत्मा हूँ ' इस तरह आत्मस्वभावमें प्रवृत्ति करना 'निश्चयधर्म' है। __ जहाँ किसी प्राणीको दुःख, अहित अथवा असंतोष होता है, वहाँ दया नहीं; और जहाँ दया नहीं वहाँ धर्म नहीं। अहंत भगवान्के कहे हुए धर्मतत्त्वसे सब प्राणी भय रहित होते हैं। १. सद्गुरुतत्व पिता-पुत्र ! तू जिस शालामें पढ़ने जाता है उस शालाका शिक्षक कौन है ! पुत्र-पिताजी ! एक विद्वान् और समझदार ब्राह्मणं है। . पिता-उसकी वाणी, चालचलन आदि कैसे हैं ! पुत्र-उसकी वाणी बहुत मधुर है। वह किसीको अविवेकसे नहीं बुलाता, और बहुत गंभीर है, जिस समय वह बोलता है, उस समय मानों उसके मुखसे फूल झरते हैं । वह किसीका अपमान नहीं करता; और जिससे हम योग्य नीतिको समझ सकें, ऐसी हमें शिक्षा देता है। पिता-तू वहाँ किस कारणसे जाता है, सो मुझे कह । पुत्र-आप ऐसा क्यों कहते हैं, पिताजी ! मैं संसारमें विचक्षण होनेके लिये पद्धतियोंको समस् और व्यवहारनीतिको सीखू , इसलिये आप मुझे वहाँ भेजते हैं । पिता-तेरा शिक्षक यदि दुराचारी अथवा ऐसा ही होता तो! पुत्र-तब तो बहुत बुरा होता । हमें अविवेक और कुवचन बोलना आता । व्यवहारनीति तो फिर सिखलाता ही कौन ! पिता-देख पुत्र ! इसके ऊपरसे मैं अब तुझे एक उत्तम शिक्षा कहता हूँ। जैसे संसारमें परनेके लिये व्यवहारनीति सीखनेकी आवश्यकता है, वैसे ही परभवके लिये धर्मतत्त्व और धर्मनीतिमें प्रवेश करनेकी आवश्यकता है। जैसे यह व्यवहारनीति सदाचारी शिक्षकसे उत्तम प्रकारसे मिल सकती है, वैसे ही परभवमें श्रेयस्कर धर्मनीति उत्तम गुरुसे ही मिल सकती है। व्यवहारनीतिके शिक्षक और धर्मनीतिके शिक्षकमें बहुत भेद है। बिल्लोरके टुकड़ेके समान व्यवहार-शिक्षक है, और अमूल्य कौस्तुभके समान आत्मधर्म-शिक्षक है। पुत्र-सिरछत्र ! आपका कहना योग्य है । धर्मके शिक्षककी सम्पूर्ण आवश्यकता है । आपने बार बार संसारके अनंत दुःखोंके संबंधमें मुझसे कहा है । संसारसे पार पानेके लिये धर्म ही सहायभूत है । इसलिये धर्म कैसे गुरुसे प्राप्त करनेसे श्रेयस्कर हो सकता है, यह मुझसे कपा करके कहिये ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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