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________________ ७४ [हिन्दी-गद्य निर्माण दुष्यन्त-अपना प्रयोजन साधने वालियों की ऐसी मीठी झूठी वातों से तो कामीजनों के मन डिगते हैं।' गौतमी-बस राजा ऐसे वचन मत कहो । यह कन्या तपोबन मे पली है. छल छिद्र क्या जाने । दुष्यन्त- हे वृद्ध तपस्विनी सुनोंदोहा-विना सिखाई चतुरई, तिरियन की विख्यात । . पशु पच्छिन हूँ में लखी, मनुषन की कह बात ॥१६८|| लेति पखेरू श्रान ते, कोइलिया 'पलवाय। तब लेग अपने चेटुअन, जब लग उड्यो न जाय ||१६६॥ शकुन्तला-(क्रोध करके) हे अनारी, तू अपना-सा कुटिल, हृदय सब का जानता है । तुझ सा छलिया कौन होगा जो घास फूस से ढके हुए कुएँ की भांति धर्म का मेष रखता है। दुष्यन्त-(श्राप ही प्राप) इसका कोप वनावट-सा नहीं दीखता और इसी से । मेरे मन में संदेह उपजता है क्योंकि-- . दोहा-बिन सुधि आए विथित चित, मैं जु क्ह्यो बहु बार । मेरो तेरो ना भयो, कहँ इकन्त में प्यार ॥२०॥ ___ तव अति राते हगन पै, लीनी भौंह चढ़ा य । __ तार्यो चाप मनोज की, मनहु कोप में श्राय ॥२०॥ पुरोहित-हे भगवती, दुष्यन्त के सब काम प्रसिद्ध हैं परन्तु यह हमने कभी । नहीं सुना कि तेरा न्याह इनके साथ हुआ। शकुन्तला, "मुंह में खांड पेट में विष"-ऐसे इस पुरुवंशी के फंदे में फैस.. कर अब मैं निलेज कहलाई, सो ठीक है। [मुख पर अंचल गल कर रोती है] शारगरव-जो काम विना-विचार किया जाय इसी भौति दुख देता है। इसी से कहा है किदोहा-विन परखे करिये नहीं, कहुँ इकन्त सम्बन्ध । ऐसे कारज के विषय, निरे न वनिये अन्ध ॥२०२॥
SR No.010761
Book TitleHindi Gadya Nirman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmidhar Vajpai
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2000
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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