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________________ [हिन्दी-गद्य-निर्माण रीति जानि अपनी पदवी की, परम्परा माना मब ही की। लकुट लई मैंने जो आगे, राज गेह रक्षा हित लागे ॥ १६५ ।। तव तें काल जु वहुत वितायो, आय बुढ़ापो मो तन छायो । डिगमिगात पग चलत दुलारो, यही लकुटि अव देति.सहारी ॥१६६॥ यह तो 'सच है कि राजा को धर्मकाज करने पड़ते हैं परन्तु महाराज धर्मासन से उठकर अभी गए हैं इस लिए उचित नहीं है कि मैं उनसे इसी समय कहूँ कि कण्व ऋषि के चेले पाए हैं, क्योंकि इस संदेशे से स्वामी के विश्राम में विघ्न पड़ेगा । नहीं नहीं, जिनके सिर प्रजापालन का वोझ है उनको विश्राम कैसादोहा-जोरि तुरँग रथ एकदा, रवि न लेत विश्राम । ' तैसे ही नित पवन को, चलिबे ही तें काम ॥१६७॥ भूमिभार सिर पै सदा, धरत शेष हू नाग । यही रीति राजान की, लेत छठो छो भाग ।।१६८|| तो अव मै इस संदेश को भुगता ही ( इधर उधर देखकर ) महा; राज वें बैठे हैं। दोहा-पालि प्रजा सन्तान सम, थकित चित्त 'जब होइ। हूँढ़त ठांव इकन्त नृप, जहाँ न आवै कोह ।।१६।। सब हाथिन गजराज ज्यों, लैके बन के माह । । धाम लग्यो खोजत फिरत, दिन में शीतल छाह ॥१७०॥ - [पास जाकर ] महाराज की जय हो ! हे स्वामी, हिमालय की तराई के वनवासी तपस्वी स्त्रियों सहित कण्व मुनि का संदेशा लेकर लाए हैं, उनके लिए क्या श्रा है ? दुभ्यन्त-(भादर से ) क्या कण्व मुनि का संदेशा लाए हैं ? 'कंचुकी-हाँ प्रभू । । दुष्यन्त-तौ सोमरात पुरोहित से कह दे कि इन ग्राश्रम वासियों की वेद की विधि से सन्कार करके अपने साथ लावें, मैं भी तब तक तपस्वियं
SR No.010761
Book TitleHindi Gadya Nirman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmidhar Vajpai
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2000
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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