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________________ . [हिन्दी-गद्य-निर्माण चाहे जैसा यह बुरा और अशुद्ध क्यों न हो पर मैंने तो उसी के निमित्त . बनाया है । सत्य ने कहा 'ठीक पर यह नो वतला कि भगवान् इस मन्दिर में चैठा है ! यदि तूने भगवान् को इस मन्दिर में बिठाया होता तो फिर वह अशुद्ध.क्यों रहता । जरा आँख उठाकर उस मूर्ति को तो देख जिसे त् जन्म भर पूजता रहा है।" , राजा ने जो अॉख उठाई तो क्या देखता है कि वहाँ उस बड़ी ऊँची वेदी पर उसी की मूर्ति पत्थर की गढ़ी हुई रखी है और 'अभिमान की पगड़ी वॉधे हुए है । सत्य ने कहा 'मूर्ख तूने जो काम किर केवल अपनी प्रतिष्ठा के लिए । इसी प्रतिष्ठा के प्राप्त होने तेरी भावना रही है और इसी प्रतिष्ठा के लिए तूने अपनी श्राप पूजा की । रे मूर्ख सकल जगत्स्वामी घटघट । अन्तर्यामी क्या ऐसे मानरूपी मन्दिरों में भी अपना सिंहासन बिछने देता है, जो अभिमान और प्रतिष्ठा प्राप्ति की इच्छा इत्यादि से भरा है ? यह तो उसकी बिजली पड़ने योग्य है ।" सत्य का इतना कहना था कि सारी पृथिवी एकबारगी कांप उठी मानों उस दम टुकड़ा-टुकड़ा हुआ चाहती थी, आकाश में ऐसा शन्द हुआ कि जैसे प्रलयकाल का मेघ गरजा । मन्दिर की दीवार चारों ओर से अड़अड़ाकार गिर पड़ीं मानों उस पापी राजा को दबा ही लेना चाहती थी । उस अहंकार की मूर्ति पर एक ऐसी विजली गिरी कि वह धरती पर औंधे मुँह श्रा पड़ी । 'त्राहि माम्, बाहि माम्, मैं डूबा, कहके भोज जो चिल्लाया तो आँख उसकी खुल गई और सपना हो गया। इस अर्से में रात बीतकर आसमान के किनारों पर लाली दौड़ आई - थी, चिड़ियाँ चहचहा रही थीं, एक अोर से शीतल मन्द सुगंध पवन चली पाती यी, दूसरी ओर से वीन और मृदंग की ध्वनि । वदीगन राजा का यश . गाने लगे, हारे हर तरफ काम को दौड़े, कमल खिले, कुमुद कुम्हलाए। । राजा पलँग से उठा पर जी भारी, माथा थामे हुए, न हवा अच्छी लगती। थी न गाने बजाने की कुछ सुध-बुध थी। उठते ही पहले उसने यह हुक्म , . दिया कि "इस नगर में जो अच्छे से अच्छे पडित हों जल्द उनको मेरे पास लायो । मैने एक सपना देखा है कि जिसके आगे अब यह सव खटराग re
SR No.010761
Book TitleHindi Gadya Nirman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmidhar Vajpai
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2000
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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