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________________ 'मुण्डमाल ]. २१७ 1 से बढ़ कर सतीत्व ही अमूल्य धन है । जिस दिन मेरे तुच्छ सासारिक __सुखों की भोग-लालसा के कारण मेरी प्यारी बहन का सतीत्व-रन लुट ., जायगा, उसी दिन मेरा जातीय गौरव अरवली शिखर के ऊँचे मस्तक से गिर कर चकनाचूर हो जायगा । यदि नव-विवाहिता उर्मिला देवी ने वीर. शिरोमणि लक्ष्मण को सांसारिक सुखोपभोग के लिये कत्तव्य पालन से विमुख कर दिया होता तो क्या कभी लखन लाल को अक्षय यश लूटने का अवसर मिलता ! वीर-बधूटी उत्तरादेवी ने यदि अभिमन्यु को भोग-विलास के भयंकर बन्धन मे जकड़ दिया होता तो क्या वे वीर-दुर्लभ गति को पाकर ' भारतीय क्षत्रिय-नन्दनों मे अग्रगण्य होते ? मैं समझती हूँ कि, यदि तारा की बात मान कर वाली भी, घर के कोने में मुंह छिपा कर डरपोक जैसा , छिपा हुआ, रह गया होता तो उसे वैसी पवित्र मृत्यु कदापि नसीव न होती। सती शिरोमणि सीता देवी की सतीत्व रक्षा के लिए जरा-जर्जर जटायु ने अपनी जान तक गॅवायी जार; लेकिन उसने जो कीर्ति की अोर बधाई पाई, । सो आज तक किसी कपि की कल्पना में भी नहीं ममाई । वीरों का यह रक्त । मांस का शरीर अमर नहीं होता; वल्कि उनका उज्ज्वल यशोरूपी शरीर ही 'अमर होता है । विजय-कीर्ति ही उनको अभीष्ट-दायिनी कल्पलतिका है । दुष्ट शत्र का रक्त ही उनके लिये शुद्ध गंगा-जन से भी बढ़कर है। सतीत्व के अस्तित्व के लिये रण-भूमि मे ब्रजमण्डल की सी होली मचानेवाली खड्डदेवी ही उनकी सती सहगामिनी है। आप सच्चे राजपूत वीर हैं इमलिये सोत्साह जाइए और जाकर एकाग्र मन से अपना कर्तव्य पानन कीजिये । मै भी यदि सच्ची राजपूत-कन्या हूँगी तो शीघ्र ही आप से स्वग में जा मिल गी। अव विशेष विलम्व करने का समय नहीं है।" चूड़ावत जी का चित्त हाड़ी रानी के हृदयरूपी हीरे को परख कर पुलकित हो उठा । प्रफुल्लित मन से चूड़ावत जी ने रानी को बार बार गले से लगाया मानो वे उच्च भावों से भरे हुए, हाडी रानो के हृदय-पारस के म्पर्श से अपना लोहकर्कश हृदय सुवर्ण जय बना रहे हों । सचमुच, ऐसे ही हृदयों के आलिङ्गन से मिट्टी की काया भी कंचन की हो जाती है। चूड़ावत जी श्रा
SR No.010761
Book TitleHindi Gadya Nirman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmidhar Vajpai
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2000
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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