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________________ २१० . [हिन्दी-गद्य- निर्माण . हम कव करते हैं ? हम तो दीन-दुर्बलों, को ठुकरा ठुकरा कर ही आस्तिक या .दीनबन्धु भगवान् के भक्त आज बने बैठे हैं। दीनबन्धु की 'अोट में हम -दीनों का खासा शिकार खेल रहे हैं। कैसे अद्वितीय श्रास्तिक है हम ! न जाने क्या समझ कर हम अपने कल्पित ईश्वर का नाम दीनबन्धु रखे हुए - है, क्यों इस रद्दी नाम से उस लक्ष्मी-कान्त का स्मरण करते हैं दीननि देखि घिनात जे, नहिं दीननि सो काम । कहा नानि ते लेत हैं, दीनवन्धु को नाम || - यह हमने सुना अवश्य है, कि त्रिलोकेश्वर श्रीकृष्ण की मित्रता और - प्रीति सुदामा नाम के एक दीन-दुर्वल-ब्राह्मण से थी। यह भी सुना है, कि : भगवान यदुराज ने महाराज दुर्योधन का अतुल आतिथ्य अस्वीकार कर बड़े , प्रेम से गरीब विदुर के यहाँ साग-भाजी का भोग लगाया था। पर यह बात चित्त पर कुछ बैठती नहीं है । रहा हो कभी ईश्वर का दीनवन्धु नाम, पुरानी' सनातनी वात है, कौन काटे ? पर हमारा भगवान्, दीनों का भगवान् नहीं है। हरे हरे ! वह उन घिनौनी कुटियों में रहने जायगा ? वह रत्न-जटित । स्वर्ण-सिंहासन पर विराजने वाला ईश्वर उन भुक्खड़ कंगालों के फटे फटे । कम्वलों पर बैठने जायगा ? वह मालपुश्रा और मोहनभोग पानेवाला भगवान् उन भिखारियों की रूखी-सूखी रोटी खाने जायगा ! कभी नहीं हो । सकता । हम अपने बनवाये हुए विशाल राज-मन्दिरों मे उन दीन दुर्बलों को आने भी न देंगे । उन पतितों और अछूतों की छाया तक हम अपने खरीदे हुए खास ईश्वर पर न पड़ने देंगे। दीन-दुर्बल भी कहीं ईश्वर-भक्त होते . सुने हैं ? ठहरो ठहरो, यह कौन गा रहा है ? ठहरो, जरा सुनो। वाह ! तब यह खूब रहा! मैं ढूढ़ता तुझे या जब कुंज और बन में, . तू खोजता मुझे था तव दीन के वतन में। . तू अाह वन किसी की मुझको पुकारता था, मैं था तुझे बुलाता संगीत में, भजन में ॥ तो क्या हमारे श्रीलक्ष्मीनारायण जी "दरिद्र-नारायण" हैं । इस ।
SR No.010761
Book TitleHindi Gadya Nirman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmidhar Vajpai
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2000
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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