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________________ साहित्य का स्वरूप) १७५ ग्रहण होता है जिन रूपों में छन्दोबद्ध काव्य में होता है । ' अर्थात् कहीं तो वह अपने प्रकृत और सीधे रूप में विद्यमान रहता है और कहीं भात्र या चमत्कार द्वारा संक्रमित रहता है। . उपयुक्त चारों रचनात्रों में कल्पना-प्रसून वस्तु या अर्थ की प्रधानता __ रहती है । शेष तीन प्रकार के अर्थ सहायक के रूप में रहते हैं । पर निवन्ध । . - मे विचार-प्रसूत अर्थ अंगी होता है । और श्राप्तोपलब्ध या कल्पित अर्थ ।। , अग रूप में रहता है । दूसरी बात यह है कि प्रकृत निवन्ध अर्थ-प्रधान होता । है । व्यक्तिगत वाग्वैचित्य अथीरहित होता है । अर्थ के साथ मिला जुला' रहता है । और हृदय के भाव या प्रवृत्तियों बीच-बीच मे अर्थ के साथ झलक मारती हैं। साहित्य के अन्तर्गत आनेवाली पॉचों प्रकार की रचनाओं का ग्राभास देकर अब मै सबसे पहले काव्य को लेता हूँ जिसकी परम्परा सभ्य, असभ्य सब जातियों मे अत्यन्त प्राचीन काल से चली आती है। लोक मे जैसे और सब विषयों का प्रकाश मनुष्य की वाणी या भाषा द्वारा होता है वैसे ही काव्य का प्रकाश भी । भाषा का पहला काम है शन्दों द्वारा वोध करना । यह काम वह सर्वत्र करती है--इतिहास में, दर्शन में, विज्ञान मे, नित्य की बातचीत में, लड़ाई झगड़े में और काव्य में भी । भावोन्मेष, चमत्कारपूर्ण अनुरंजन इत्यादि और जो कुछ वह करती है उसमें अर्थ जहाँ होगा वहाँ उसकी योग्यता और प्रसंगानुकूलता अपेक्षित होगी । जहाँ वाक्य या कथन में वह “योग्यता" उपपन्नता या प्रकरण संबद्धता नहीं दिखाई पड़ती वहाँ लक्षणा । और व्यंजना नामक शक्तियों का श्राह्वान किया जाता है । और 'योग्य' अथवा प्रकरण संवद्ध अर्थ प्राप्त किया जाता है । यदि इस अनुष्ठान से भी योग्य या संबद्ध अर्थ की प्राप्ति नहीं हो तो वह वाक्य या कथन प्रलाप मात्र मान लिया जाता है। यदि किसी लड़की को दिखाकर कोई किसी से कहे कि "तुमने इस लड़की को काटकर कुएँ में डाल दिया” तो सुनने वालों के मन में इस बात का अर्थ सीधे न फंसेगा, वह एकदम असम्भव या अनुपयुक्त जान पड़ेगा। फिर चट लक्षण के सहारे वे इस अबाधित या समझ में आने
SR No.010761
Book TitleHindi Gadya Nirman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmidhar Vajpai
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2000
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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