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________________ भारतीय साहित्य की विशेषताएँ] १५६ - हुश्रा है, ठीक उसी प्रकार साहित्य तथा अन्यान्य कलाओं में भी भारतीय प्रवृत्ति समन्वय की ओर रही है । साहित्यिक समन्वय से हमारा तात्पर्य साहित्य में प्रदर्शित सुख-दुख, उत्थान-पतन, हर्ष-विषाद आदि विरोधी तथा विपरीत भावों के समीकरण तथा एक अलौकिक आनन्द मे उनके विलीन होने से है । साहित्य के किसी अंग को लेकर देखिए, सर्वत्र यही समन्वय दिखाई देगा। भारतीय नाटकों में ही सुख और दुःख से प्रबल घात-प्रतिघात दिखाए गए हैं पर सवका अवसान आनन्द में ही किया गया है। इसका प्रधान कारण यह है कि भारतीयों का ध्येय सदा से जीवन का आदर्श स्वरूप उपस्थित करके उसका उत्कर्ष बढ़ाने और उसे उन्नत बनाने का रहा है । वर्तमान स्थिति से उसका इतना सम्बन्ध नहीं है जितना भविष्य की संभाव्य उन्नति से है । हमारे यहां यूरोपीय ढङ्ग के दुःखान्त नाटक इसी लिये नहीं देख पड़ते । यदि अाजकल दो चार नाटक ऐसे देख भी पड़ने लगे हैं तो वे भारतीय आदर्श से दूर और यूरोपीय आदर्श के अनुकरणमात्र हैं । कविता के क्षेत्र में ही देखिये, यद्यपि विदेशी शासन से पीड़ित तथा अनेक क्लेशों से संतप्त देश निराशा की चरम सीमा तक पहुंच चुका था , और उसके सभी अवलम्बों की इतिश्री हो चुकी थी, पर फिर भी भारतीयता के सच्चे प्रतिनिधि तत्कालीन महाकवि गोस्वामी तुलसीदास अपने विकाररहित हृदय से समस्त जाति को आश्वासन देते हैं. 'भरे भाग अनुराग लोग कहैं राम अवध चितवन चितई है । विनती सुनि सानंद हेरि हंसि करुनावारि भूमि भिजई है। राम राम भयो काज सगुन सुभ राजाराम जगतविजई है। समरथ बड़ो सुजान सुसाहब सुकृत-सेन हारत 'जितई है ॥' आनन्द की कितनी महान् भावना है। चित्त किसी अनुभूत अानन्द की कल्पना में मानों नाच उठता है। हिंदी साहित्य के विकास का समस्त युग विदेशीय तथा विजातीय शासन का युग था, परन्तु फिर भी साहित्यिक समन्वय का कभी निरादर नहीं हुअा ! अाधुनिक युग के हिन्दी कविता में यद्यपि पश्चिमी आदर्शों की छाप पड़ने लगी है और लक्षणों के देखते
SR No.010761
Book TitleHindi Gadya Nirman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmidhar Vajpai
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2000
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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