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________________ श्री वर्तमान जिन चतुर्विंशतिका (९) श्री सुविधिनाथ गोतम् राग - सोरठ कडखानी जाति सेवा बाहिरउ कइयइ को सेवक, तारपउ हुवइ तउ तवीयइ। . कीधइ काम मसाकति दीधां, ते दातार न चवीयइ ।।१।। से० ॥ वेडी जिम तारइ बडता, ते तारक सरदहीयइ। आपणपइ तरता नइ तारइ, ते सु तारक कहीयइ ॥२॥से। आठ पहर ऊभा ओलगतां, मउज कदे कइ दीजइ। विरुद गरीब निवाज तण उप्रभु,तिण ऊपरित वहीजइ ३॥से०॥ ते किम पात्र कुपात्र विचारइ, जे उपगारी होवइ । सम विसमी धारा वरसतउ, जलधर कदे न जोवइ ॥से० ॥४॥ पडियउ सुजस लिये परमेसर, पूरयउ छतउ पवाडइ । श्री 'जिनराज' सुविधि साहिव सु,किम पहुँचीजइ आडइ।।से.५ (१०) श्री शीतल जिन गीतम् राग- मल्हार सारग आज लगइ धरि अधिक जगीस, सेव्यउ सीतल विसवा वीस। जउका कोधी हुयइ वगसीस, तउ संभारेज्यउ जगदीसा॥१॥ अवसरि करिअ हुस्यइ अरदास, तइ तउ काइ न पूरी आस ।। तउ पिण तुझ परि वेसास, सेवक नई आपउ सावास ॥२॥ जउ को तइ काढयउ हुवइ काम, तउ ते दाखउ लेइ नाम । हुतेसेवक तूते' सामि, कितला इक दिन चलस्यइ आम ॥३॥ जनम लगइ नव नव अवदात, गातां वउलइ मुझ दिन रात तूकिम नेह धरइ तिलमात, तत वेला वातारी वात ॥४॥
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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