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________________ २१६ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि सीतल जल चंदन करी, तेह सचेतन थाय । तिम २ नेह घरगउ दहइ, सोक जलग वहु xकाय ॥१०॥०॥ विरह विलाप घणा किया, सुत विरहइ जे मात । जाणइ ते सुत विरहगी, जिण नइ वीतक वात ॥११||कृ०॥ सोक जलंजलि आपिनइ, मात पिता घरि प्रेम। अधिकउ कृष्ण नरेस स्यु ,नित वरतइ मुख खेम ||१२||कृ०|| जवहर नी परि जोवता, यादव वंस स नीर । वलि विसेष सुरमरिण समउ, हूप्रउ हरि लघुवीर ॥ १ ० ॥ [सर्व गाथा ५३६] गुरण बहु गजसुकमाल ना, जटमति हू इक जीह । पूरा ते न हुवइ किमइ, जउ कहियइ लख+ दाह ॥१॥ क्षमावत संसार मइ, हुइसी ना अनेक । वरतइ छइ पिण एहनी, जग मइ अधिको टेक ॥२॥ विषम परोसह ए सहयउ, नामइ गजमुरुमाल । धन घन करणी एहवी, नमियइ चरण त्रिकाल | सर्व गाथा ५४२ हाल-३० राग धन्यासिरी,शांति जिन भांमणडइ जांएह जाति साधुजीनी भावना भावु, मनवंछित फल पावु व ॥१॥सा०॥ गजसुकमाल सदा सलहीजइ, जिम सिव वास लहीजइ वे समा०॥ हेम जेम कसबटि कसीयर, अधिक जान+ जिम लहीय उ वे ॥शासा।। समता घर अधिकउ सोमागी, वय चढ़ती वयरागी वे ॥४॥सा०॥ चदननी परि जसु मन ताढउ, सोमिल ऊपरि गांढउ वे ॥शासा०॥ *वण उद xवहकाय +नित - भावन
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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