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________________ युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने स० १६६७१ मे श्रासाउलि मे राजसमुद्रजी को वाचक पद से अलंकृत किया। बाचकजी ने समसद्दी-सिकदार को रजित करके २४ चोरों को वधन-मुक्त कराया। घघारणी ग्राममे प्रतिमानो की प्राचीन लिपि पढी । मेडता मे अम्बिकादेवी सिद्ध हुई । आगे सधपति रतनसी, जूठा और आसकरण के साथ तीनवार शत्र जय की यात्रा की थी, चौथी वार देवकरण के स घ के साथ सिद्धिगिरि स्पर्शना की। वाचकज़ी को बड़े बड़े राजा, महाराजा, राणा मुकरबखान नवाव आदि बहुमान देते थे। मुकरवखान ने सम्राट के समक्ष इनकी वडी प्रसंशा की। सम्राट जहागीर के आमन्त्रण से श्री जिनसिंहसूरिजी वीकानेर से विहार कर मेडता पधारे । वहाँ सरिजी का शरीर अस्वस्थ रहने लगा। अन्त समय मे वाचक जी ने बड़ी भक्ति की और स रिज़ी के श्रेयार्थ गच्छ पहिरावणी करने,ज्ञानभ डारमे ६३६००० (प्रथाग्रन्थ) पुस्तकें लिखाकर रखने और ५०० उपवास करने का वचन दिया। सू रिजी के स्वर्गवासी हो जाने पर सं० १६७४ का० शु०७ शनिवार को राजसमुद्र जी को उनके पट्ट पर स्थापित किया गया । संघपति आसकरण ने उत्सव किया। प्राचार्य हेमसूरि ने२ सूरिमंत्र दिया । भट्टारक श्रीजिनराजसूरि नाम रखा गया दूसरे शिष्य श्रीजिनसागरसूरिजी को भी आचार्य पदवी दी। कवि ने पदस्थापनो महोत्सव करने वाले सुप्रसिद्ध चोपडा शाह प्रासकरण का यह विवरण लिखा है-जिनके घर में परम्परागत बड़ाई थी। शाह माला संग्राम की भार्या दीपकदे के पुत्र कचरे ने १- प्रबंध मे सं० १६६८ का उल्लेख है । इस रास में मल गाथा में सवत् न लिखकर किनारे पर लिखा है। २- प्रवध मे इन्हे पूरिणम गच्छीय लिखा है। • (ज)
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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