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________________ १६४ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि ढाल १८-प्रियु चले परदेस, सवे गुण ले चले-पहनी राग-केदारा गउडी त्रिविधि विविधि करि च्यार महाव्रत पालिवा, नान्हा मोटा दोप ग्रहोनिमि टालिवा । नीर मात्र पिए राति पडी किम चाग्विवड, ___कठ प्राण गत सीम नीम ए राखिवउ ॥१॥ नेमिनाथ प्रभु हाथ महाव्रत आदरो, ग्रागिमु मातx न वात कदी+ परमादरी। पालिसु निरा तिचार करीम खप आकरी, मूल थको जड काढिमु करम विपाकरी । धीर वीर बावीस परीसह घाडिसी, चलता सिवपुर वाट विचालड पाडिसी । मेल्यउ माल कमाइ, गमाइ किता वह्या, वू वन वाहिर काइ, अाखि मसली (वेसि) रहया ॥३॥ करिवी पडिस्यइ राडि, धाडि आवी पडयां, रहिसु सेस सिरि रोप, भरिस पगनीवडथा। जिहाँ साहस तिहा सिद्धि, करिसुवलि जावतउ, देखे राखु जेम, तयोधन सापोतउ ॥४॥ सयम लीधा पूत, पनउता स्यु थया, __ मन सुध विसवावीस, न पालइ जउ दया । रहिवउ गुरु-कुल वास, प्रमाद न सेवराउ, करिवउ पग-२ धीज, कठिन पाछइ चाउ १५}} पीहर जे पट जीव, निकाय तरणा हसी, दूहविस्यइ किम जतु,- मात ते साहसी। अप्रमत्त गुरु तत्व, वचन आराधसी, *नदी जमुना की तीर उड़े दो पखियाँ-एहनी xतात +कही जीव
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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