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जिनराज सूरि-कृति - कुसुमांजलि
भुज लांबी यूप तरणी परइ, साथल कदली सम सोह हो । जंघा गज सूडि तरणी परइ, जोवता वाघइ मोह हो ||६||सो० ॥ जसु चरण कमल कछप समा, नख सोहइ जिरग विध सीप हो । उद्योत करइ दिन राति जे, दीपइ जागे बहु दीप हो ||१०|| सो० ॥ नख सिख इम रूप विचारताँ, कहताँ न जुडइ उपमान हो । तउ पिण कविजन मन कलपना,
आरणइ निज मति अनुमान हो ||११|| सो० ॥ [ सर्व गाथा २३०
॥ दूहा ॥
चउदह विद्या च पसू, सीखइ श्रोभा पासि । सगली श्राई सामठी, थोड़ड़ ही अभ्यास ||१|| कला बहुत्तरि पुरुषनी, जारणइ चतुर सुजाण । तउ पिरण तिल भर मद नही, ए उत्तम श्रहिनार |२ || विद्या गुरु हैती वध्यउ विनय तरगड सुर गुरु पिरण जीपइ नही, करतउ जिरग सू भाव भेद जागइ भला, अलकार वडा कवीसर वरणवइ, जिगनइ मूकी मान ॥ ४ ॥ [ सर्व गाथा २३४ ]
परसाद । वाद ||३||
उपमान ।
ढाल - १४ मुझनइ हो दरसण न्यायन तू दीयइ* ए जाति
रिद्धिमत मतिमंत ।
मोमिल माहरण तिरण नगरी वसइ हो, च्यार वेद जारणइ कुल थिति x रहइ हो,
सुचि थापइ एकत ॥ १ ॥ सो० ॥ मोमसिरी जसु नामइ सुदरी सोभा गिरिंग सुकमाल । जागड रमणी नी चउसठि कला, नवि को मर्न जजाल ||२|| सो० ॥
* कागलिउ करतार भरिण सी परि लिखूं - एहनी Xतिथि बरे हो