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________________ १७६ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि सांमल वरण छए हरि सारिखा रे । धन-धन सारया मातम काज रे ॥ ९० श्रीनेमीसर चरण कमल नमी रे | भाव सहित वलि वदी तेह रे । मन न वलइ पाछउ वलतां छता* रे । सुत दीठां तिण अधिक सनेह रे ॥१०॥स० चित चितइ मारग धिरती थकी रे। प्रभु जपी अचरिजनी वात रे। लोकालोक प्रकासन नउ कहयउ रे । नवि विघटड किरण (विधि) तिल मातरे ॥१शास० हरि श्रावइ भावइ मन भावना रे गुण गावई प्रभुना सभारि रे । मन अ दोह घरगउ सुत विरह्नउ रे। अतर लागइ जिम असि धारि रे॥१२॥स० सर्व गाथा १४२ ॥ दूहा ॥ इतला दिन जाण्या नही, तिरण न हुतउ मुझ राग। प्रेम जलधि दुत्तर हि वइ अधिकउ एह अथाग ॥१॥ हिव ए दुख किरण नइ कहुँ, लोक माहि मुझ लाज । कहतां वात वरणइ नही, मुष्टि भली बछराज ॥२॥ राखी न सकी प्रापरणीx अगज सरिखी थ । मइ हिव माखो नी परइ, घस्याँ सू होवई हाथ ||३|| — सर्व गाथा १४५ - - *थका xपापिणी
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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