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जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि
सांमल वरण छए हरि सारिखा रे । धन-धन सारया मातम काज रे ॥
९० श्रीनेमीसर चरण कमल नमी रे | भाव सहित वलि वदी तेह रे । मन न वलइ पाछउ वलतां छता* रे ।
सुत दीठां तिण अधिक सनेह रे ॥१०॥स० चित चितइ मारग धिरती थकी रे।
प्रभु जपी अचरिजनी वात रे। लोकालोक प्रकासन नउ कहयउ रे ।
नवि विघटड किरण (विधि) तिल मातरे ॥१शास० हरि श्रावइ भावइ मन भावना रे गुण गावई प्रभुना सभारि रे । मन अ दोह घरगउ सुत विरह्नउ रे।
अतर लागइ जिम असि धारि रे॥१२॥स०
सर्व गाथा १४२
॥ दूहा ॥
इतला दिन जाण्या नही, तिरण न हुतउ मुझ राग। प्रेम जलधि दुत्तर हि वइ अधिकउ एह अथाग ॥१॥ हिव ए दुख किरण नइ कहुँ, लोक माहि मुझ लाज । कहतां वात वरणइ नही, मुष्टि भली बछराज ॥२॥ राखी न सकी प्रापरणीx अगज सरिखी थ । मइ हिव माखो नी परइ, घस्याँ सू होवई हाथ ||३||
— सर्व गाथा १४५
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*थका xपापिणी