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________________ १७२ जिनराज सूरि कृति कुसुमांजलि सफलकरण मानव अवतार, इरणपरि हे इरपरि भावन भावीयइ ॥ ११ ॥ सा० ॥ सर्व गाथा १०२ ॥ दूहा || आगलि प्रावी साचवी त्रिकरण मुद्र प्रणाम । वे कर जोडि पूछिवा, जगगुरु भासइ ताम ॥१॥ श्राव्या ना विहरवा, मुनिवर निरखी तेह | रोम रोम तुनु उलसर, जाग्यउ नवल सनेह ||२|| नारि अवर साबति थई, जिरग जाया सुत एह । साधु वचन पिरग (न) हुवइ मृषा, मन मइ * थयउ मदेह || ३ || ते तू आवी पूछिवा, एसx अत्य समरत्थ । हंता भामइ देवकी, कहउ हिरइ वइठी बारह परखदा, भासइ अलवि अलीक न उचरइ, प्रतिसय परमत्थ ||४|| भगवंत । महंत ||५|| सर्व गाथा १०७ इम वत ढाल-७ यतिनी भद्दिलपुर रिद्धि समृद्ध | तिहा नाग घरणि सुप्रसिद्ध । कोसीसा कलस विचालइ । सुलसा निरदूषण पालइ ॥ १ ॥ भावी सुभ असुभ विचारइ । जे देखी तनु लक्षण वीथी । वहतइ इम संतान सही सू थासी । पिग माछि+ भावी सूं जोर न चालइ । ते बोल सतान पखइ ससारी | दिलगीर सामुद्रकऋणु सारइ । वात कही थी ||२|| छता मरि जासी । होनिसि सालइ ॥३॥ हुवइ नर नारी । *इम X एम, ए सह + माहि
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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