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________________ जैनाचार्य जिनराजसरि और उनकी साहित्य सेवा: राजस्थान मे काफी प्राचीन समय से जैन-धर्म का प्रचार रहा है । समय समय पर अनेको जैनाचार्यो और विद्वान मुनियों ने यहां के लोगो को अपने उपदेशो द्वारा सद्धर्मानुयायी बनाया । श्रोसवाल, पोरवाल, श्रीमाल, पलील्वाल, खडेलवाल श्रादि अनेक जैन, वंश, जाति व गोत्र, जो आज सारे भारतवर्ष मे फैले हुए हैं, वे अधिकांश राजस्थान के ही हैं । कलापपूर्ण मंदिर, मूर्तियों, चित्रो, हस्तलिखित ग्रंथो आदि का राजस्थान मे जैन मुनियो और आचार्यों द्वारा प्रचुर परिमाण मे - निर्माण हुआ। आज भी सं कड़ो छोटे-बड े ज्ञानभडार, जन-म दिर राजस्थान में पाए जाते हैं । अनेकों विद्वान जैन ग्रंथकार राजस्थान में हुए हैं । जिन्होंने प्राकृत स ंस्कृत, अपभ्र श राजस्थानी, हिंदी, गुजराती, पजाबी, सिंधी भाषा मे रचनाएं की है । यहां के कई विद्वान तो वगाल तक पहुँचे और वहा भी राजस्थानी एव हिंदी मे ग्रन्थ वनाए । उनके द्वारा कुछ फुटकर भजन बंगला भाषा मे भी रचे गये हैं, इस तरह राजस्थान के जैन कवियो का रचा हुआ साहित्य वहुत विशाल और विविध प्रकार का है - साहित्य रचना मे उनका प्रधान उद्देश्य लोक, कल्याण का रहा हैं। विद्वत्ता प्रदर्शन, धन एवं यश की प्राप्ति उनका उद्देश्य नही था । जन साधारण के लिए रचे जाने के कारण उनकी रचनाओ की भाषा भी सरल होती थी । प्राकृत एवं सस्कृत ग्रन्थो की भाषा टीकाएं भी राजस्थानी -गद्यमे काफी (घ )
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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