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________________ कर्म बत्तीसी ११७ करम वसि आकाशे वाणी, भरि राका नइ नामि जी ॥क०॥८॥ कीधो द्वारिका दाह दीपायन, बइठउ कृष्ण नरेश जी । अर्ध भरत सामी विचितई, आई पांडव परदेश जो ॥क०९।। सीता सती शिरोमणि कहीइ, जाणइ सहु संसार जी। तेहनइ राम तजी वनवासि,मूकि वचन सभारि जी ॥क १० नीर वहइ चडाल तणइ धरि, रही मसाणि नरिंद जी। जिझ सुत खापण निजगडी लीधउ, ते राजा हरिचद जो ॥क०॥११॥ जात मात्र आकाश उपाडी, सुर नाखे वन माहि जी। कुमर प्रजुन्न पानडा माहि,राखिउ करमइ साहि जी।।क० १२ साधु वचन साभलि सागरदत्त, दामन्नइ इकवार जी। मारण माडिउ पणि नवि मुउ, हुयउ ग्रहपति सार जी ॥क०॥१३।। विविध रतन मरिण माणिक देवी, बांभण एक अनाथ जी। रतनागर नी सेवा कोधी, दादुर लागु हाथि जी ॥क०॥१४॥ सोमदेव निज भगिनी परणी, पिण छडी ततकाल जी। निज माता गणिका सु लुबधउ, करम तणउ जजालि जी ।।क०।१५।। यात्रा करण बारह व्रत धारक, श्रावक वीरउ नामजी। मारग वाघणि सीगै वीध्यौ,करम तणे परिणाम जी ॥क०१६ अल्प काल ब्रत पाली पामइ, पुंडरीक भव पार जी। ब्रत पाली चिरकाले जाइ, कंडरीक नगर मझारि जी ।।क०१७
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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