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________________ शील बत्तीसी ते भव भव दुरगति दुख पामइ, ११३ न लहइ सोभ लिगार जी || ३ || सी० || एक वार नर नारी सगइ, जीव मरइ नव लाख जी । एकइ भागइ पांचइ भागा, द्यइ सज्जंभव साख जी ||४सी० ॥ करम वसइ रमणी देखी नइ, जे चूकइ गुणवंत जी । तनु मन वचन वली वसि आणइ, ते पिण साधु महंत जी ||५|| सी० ॥ आठ रमणि रूपइ रभा सम, कनक निनारगु कोड़ि जी । छोडी जंबू चरण करण धर, સ कवण करइ तसु होडि जी || ६ || सी० ॥ कुलवालूयर तप जप करतउ, रहतउ ते वनवास जी । कोणिक गणिका संग विलुवउ, पामइ नरकावास जी ॥ ७सी० ॥ चेलणा वचन सभाली निसभर श्रेणिक षड़यउ संदेह जी । सतिय सिरोमणि वीर वखाणी, सिव सुख पामइ तेह जी ||८|| सी० ॥ सुकमालिका नदी माहि नांख्यउ, भूपति निज भरतार जी । कुबज पुरष साथइ हतीयारी, दुखरणी रुलइ संसार जी || सी० श्री रहिनेमि नेमि जिन बंधव, राजमती तसु देखि नी । चूकउ पिशा व्रत भग न कीधर, राखी राजुल रेख जी || १० सी० अभया राणी दूपरण दाख्यउ, क्षेत्रइ न खल्यउ जेह जी । सूली फीटी थयउ सिंहासरण सेठ सुदरसरण तेह जी ॥११ सी ० ॥ लकार्पाति विद्या अतुली वल सुरपति पदवी सार जी ! तसु मस्तक रडवड़िया धरती, विरुया विषय विकार जो ||१२|| सो ० ॥f '
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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