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________________ किणहू पीर न जाणी वारउ विषय वरग परि दउरत, मन बलवत बलोच।। परमारथ 'जिनराज' पिछाण्यउ', क्या साध्यउ करि लोच ॥मे०॥३॥ किणह पीर न जाणी पिउ कइ गवरिण खरी अकुलारणी। मिलण सहल पुनि मिलि करि विछुरण, अयन जहर नीसाणो ॥१॥ सुधि बुधि सकल गई प्यारी की, धरणि ढरत मुरझाणी । सबही सइ चउ लइत हटाइ थइ, अइसी भईय विराणो ॥२॥ अउरहि सांग वणाइ विदा दो, जल बल चारि कहाणी। श्री 'जिनराज' वदत विरहात की, किणह पीर न जाणो ॥३॥पि०॥ पिउ-पाहुणो राग-धन्यासी ( वेलाउल) जब जाण्यउ पोउ पाहुणउ, तब तइसइ रहोयई। विण चित सु चित लायकइ, कब लग दुख सहीयइ ॥१॥ समझायउ समझइ नही, कहा फइटउ गहीयउ । आपणउ राख्यउ ना रहइ, हल देवल, कहीयइ ।।२।।ज०॥ प्रेम वणाइ पतग सउ, उवा कइ संग न वहीयइ। नयन नीर डारउ कहा, रोया 'राज' ना लहीयइ ॥३॥ज०॥ । १- न जाण्यउ २- दे चल ३- चाहियइ
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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