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________________ ७६ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि दीठउ घर सारउ अरथइ भरयउ, जाणउ परतखि देव ।६स० हाव भाव विभ्रम वसि आदरइ, वेश्या सुघर वास । पिण दिन प्रति दस दस प्रतिवूझवी मूकइ प्रभु नइ पास ॥७सा० इक दिवस नव आवी नइ जुडया, न जुडइ दसमउ कोइ। आसगाइत हासइ मसि कहा, पोतइ दसमउ होइ ॥८॥सा०॥ नदिषेण फेरि सजम लीयउ, विषय थकी मनवालि। चूकी नइ पिण जे पाछा वलइ, ते विरला इणि कालि ॥९सा० व्रत अकलकित जउ राखण करइ, इणि खोटइ ससारि । श्री 'जिनराज' कहइ तउ एकलउ, पर घरि गमण निवार ॥१०॥सा०॥ श्री गजसुकुमाल मुनि गीतम् सवेग रस माहि झीलतउ, मन सु करइ आलोच । दोषी नउ जउ दहवट गमु, तउ मइ साधु रे स्यु करि लोच ॥१॥ यादवराय धन धन 'गजकुसुमाल,' तेहनइ करू रे प्रमाण त्रिकाल प्रभुपासि सजम आदरयउ, तेहनउ ए प्रमाण। , मन वच काया वसि करी, जउ हूँ पामू रे केवलज्ञान ॥२॥ मुनि मुगति जाववा अलजयउ, पडखइ न दिन दस वीस । जास्यइ तिका जावउ घड़ी जउ दिन जायइ रे तउ छह दीस ।३। समसाण जइ काउसग्ग रहयउ, तिण सांझि प्रभु.नइ पूछि । मुनिवर अवर मन चितवइ,एहनइ साची रे छइ मुंह मूछि।४। मझ सुतां विण अवगुण तजो, सोमल अर्गान परजालि ।
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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