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________________ ७४ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि जी हो ऋद्धि अवर पाछलि थई, हो जी अलवि न निरखी आप ॥४॥ जी हो छ? छट्ठ नइ पारणइ हो जी आछणची नउ भात । जो हो लबधि छता साते सहइ हो जी रोग वरस सय सात ॥५॥ जी हो न करइ सार सरीरनी, हो जो सूधउ साधु महत । जी हो सुर वचने चूकउ नही, होजी धरि धीरज एकत ।।६।। ___जी हो लाख वरस संजम धरू, हो जी सारी आतम काज । __ जी हो मानव भव सफलउ कीयउ, हो जी इम जंपइ 'पिनराज' ॥७॥ श्री बाहुबली गीतम् । पोतइ जइ प्रति बूझवउ, वधव अमली माण वनि आवइ वे बहिनडी, करि प्रभुवचन प्रमाण ॥१॥ वीरा 'बाहुबलि'बाहूबलि', वीरा तुम्हो गज थकी ऊतरउ, मज चढयां केवल न होइ वी० ।। आकणी।। मूठि भरत मारण भणी, ऊगामी धरि रोस । आव्यउ उपशम रस तिसइ, सहिस्यइ ए मुझ सीस ॥२॥वी०।। मद मछर माया तजी, पंच मुष्टि करि लोच । धीर वीर काउसगि रहयाउ, इम मन सु आलोच ॥शवी०॥ आगलि लघु बधव अछइ, किम वदिसु तजि माण। ऊपाडिस पग ऊपनइ, इहां थी केवल नाण ॥४॥वी०॥ वेलडीए तनु वीटियउ, डाभ अणी पग पीड। ' मुनिवर नइ काने बिहुँ, चिडीए धाल्या नोड़ ॥५॥वी०॥ सहतां एक वरस थयउ जी, तिस तावड़ सो भूख ।
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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