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________________ ( १८४ ) (१४) जिन वाणी वक ( २ ) श्री जिनवाणी, सुणिज्यो भविक प्राणी । एछ मुक्ति श्रहिनाणी, परभव नउ सवल जाणी || रउ विवेक आणी, छोडउ ग्रवर विकथा कहाणी | नउ वाउ मुक्ति रूप पटराणी, घणुं स्युं कहु ताणी । जिसी मिद्धात बखाणी, श्रमिय समाणी ॥ वाणी बारह परपद पूरी, मिथ्याध्वमान मूरी । पइत्रीस वचनातिशय सनूरी, पापकर्म-पूरी ॥ सर्वसत्वर्धारिणी, योजनानुहारिणी । भव्यजन कर्णामृत लावणी, कुमति विद्राविणी ॥ ससार समुद्र तारिणी, महा श्राचार्य कारिणी | 2 ष्टकर्म बल विटारिणी, दुर्गतिपतजनतोद्धारिणी ॥ सभा जन ससय हारिणी, मोक्षोपाय विधायिनी । चतुर्धा धर्म प्रकाशिनी, च्यार कषाय निर्नाशिनी ॥ मालव कौशिक सग शोभिनी, पर दर्शन क्षोभिनी । सकल कर्म ध्वमिनी, कलिमल ख्यालिनी ॥ उन्मार्ग मेदनी, मिथ्यात्व छ नी । इसी वाणीय करी लोक उपरि हित श्रादरी । चतुः प्रकार, सर्वसार, जगत्र नद्द आधार ॥ धर्म मार्ग उदिसइ, भविक लोक वणइ "वीर" हीये वसन् । एवं चिव भगदद्वाणी- सर्व वान छिद्रापनी । स० कौ० (१५) जिन वाणी - ( ३ ) वीतराग तणी वाणी, भव वेलि कृपाणी । ससार सागर समुतारणी', मद्दा मोहाधकार दिनकरानु कारिणी । क्रोध दावानलोपशम्मिनी, मुक्ति मार्ग प्रकाशनी । कलिमत प्रक्षालनी, मिथ्यात्व छेदिनी । त्रिभुवन पालिनी, पाप विशोधिनी, मन्मथ प्रतिपंथिनी । १. समार समुद्र तारणी । विश्वसनी ।
SR No.010755
Book TitleSabha Shrungar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherNagri Pracharini Sabha Kashi
Publication Year1963
Total Pages413
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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