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________________ जव झुलाती हुई गीत सुनाती है तब वह चुप हो जाता है, रोना बन्द करके मुसकराने लगता है, खेलने लगता है। उसी प्रकार से श्री अरिहन्त परमात्मा की परम वात्सल्यमय वाणी सुनकर जीवो को अपार सुख-शाता का अनुभव होता है. तत्कालीन विपय-कषाय के आक्रमण रुक जाते हैं और स्थूल एव सूक्ष्म मन मे अपूर्व हर्ष उमडता है । बस, यह वाणी सुनते ही रहे ऐसा उत्कट भाव उस समय वहाँ स्थित प्राणियो के मन मे ज्योत्सना की तरह छा जाता है। निरवधि वात्सल्य के उदधि के समान श्री अरिहन्त परमात्मा के प्रत्येक रोम मे से टपकते अपार जीव-वात्सल्य के सहज प्रभाव से समवसरण विराजमान हिंसक प्राणी अर्थात् बाघ और वकरी, मोर और साँप, सिंह और हिरन भी अपनी जातिगत शत्रुता भूलकर परस्पर मैत्री-भाव रखते है । उनमे एक दूसरे को मारने की भावना ही नहीं आती। इन सव विकृत भावो का समस्त सामर्थ्य श्री अरिहन्त परमात्मा के परम वात्सल्यमय सामर्थ्य के समक्ष निष्प्राण हो जाता है, जैसे मध्यान्ह के सूर्य के समक्ष तिमिर का सामर्थ्य निष्प्राण हो जाता है। परम तारणहार श्री महावीर परमात्मा की प्रशम-रस-मग्न मुख-मुद्रा एव अपार वात्सल्यमयी वाणी, 'बुज्झ, बुज्झ चण्डकोसिय' के प्रभाव से दृष्टिविष युक्त चण्डकौशिक नाग तत्काल शान्त होकर समता भाव से चीटियो के डक सहन करता हुआ देव गति मे गया, वह भी क्रोधादि कषायो का परमात्मस्नेह के समक्ष कोई जोर नहीं चलता उस तथ्य का समर्थन करता है । जिन्हें 'स्वयभूरमण-स्पद्धि-करुणा-रस वारिणा' कह कर महर्षियो ने जिनकी स्तवना की है, जिनका 'महामोह-विजेता' कह कर स्मरण किया है, जगत्-त्रयाधार' कह कर जिनकी पूजा की है, उन श्री अरिहन्त परमात्मा के द्वारा, उनकी उत्कृष्ट-भाव-दया के द्वारा, उनके अप्रतिहत शासन के द्वारा यह विश्व सौभाग्यशाली है । देह की दिव्यता निरन्तर तीन तीन भव, सकल जीव-राशि के परम हित की सर्वोच्च साधना को सार्थक करने वाले, समस्त जीव-राशि के परम हित को अपने १०० मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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