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________________ मित्रता प्रादि शुभ भावो की यह तासीर है कि इसके द्वारा जिसका चित्त सुरभित होता है उसके चित्त पर पौद्गलिक सुख और पोद्गलिक सम्बन्धो का राग प्रभुत्व नही जमा सकता । स्पर्शित शुभ भाव उस प्रकार की शुभ करणी मे परिणत होकर ही रहता है, मत. ऐसा भय अथवा भ्रम रखने की आवश्यकता नही है कि केवल शुभ भावना से कार्य सिद्ध हो सकता है क्या ? श्री तीर्थंकर परमात्मा के शासन के प्रेमी पुण्यात्मानो को यदि यह प्रश्न स्पर्श करे तो वह एक अचम्भा माना जायेगा, क्योकि स्वय श्री तीर्थंकर परमात्मा उस उत्कृष्ट शुभ भाव, प्रकृष्ट परार्थ परायणता और सर्वोत्तम भाव दया के पवित्रतम प्रमाण स्वरूप हैं । समस्त श्रेष्ठता को अपनाने, प्रकट करने का उत्तम वीज उत्कृष्ट शुभ भाव है, उसमे दो मत नही हैं । स्व साधना द्वारा जगत को मूक सन्देश जिस जन्म मे श्री तीर्थंकर परमात्मा सर्वश, अरिहन्त, तीर्थकर और समस्त कर्म-बन्धनो से सर्वथा मुक्त होकर सिद्ध स्वरूपी बनने वाले होते हैं, उस जन्म मे जब वे माता के गर्भ मे पधारते हैं तब मतिज्ञान, श्रु तज्ञान और अवधि-ज्ञान-रूप विशिष्ट ज्ञान के धारक होते हैं। इस विशिष्ट ज्ञान के प्रभाव से वे उसी भव मे अपनी मुक्ति होने की बात जानते हुए भी दुश्चर सयम अगीकार करके, विशिद्ध रूप से पचाचार का पालन करके, अष्ट प्रवचन-माता का जतन करके, उग्र तपस्या करके, भयकर परिषह-उपसर्गो को धीरता एव वीरता से सहन करके, निश्चय ध्यान करते-करते जब तक उन्हे केवल ज्ञान प्राप्त नही होता तब तक की छद्मावस्था मे भी विश्व को मूक सन्देश देते ही रहते हैं कि “स्वकृत कर्मों के साथ सघर्ष करके उन्हे पराजित किये बिना, सयम का सुविशुद्ध पालन किये बिना, उग्र तपस्या का सेवन किये बिना और शुल्क ध्यान की धारा पर आरूढ हुए बिना केवल ज्ञान हस्तगत नही किया जा सकता । अत: जिसे इन कर्म-शत्रु के पजे मे से मुक्ति प्राप्त करनी हो उसे विवेक रूपी सराण पर सयम रूपी मिले मन भीतर भगवात ९७
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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