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________________ का म्वरूप धारण करके विश्व के जीवो को पावन करने का स्वधर्म पूर्ण करते हैं । . . एक आत्मा को दीयो गया शुभ भाव भी उत्कृष्ट पुण्य के रूप में परिणत होता है तो तीन भुवन के समस्त जीवो को दिया गया शुभ भाव-उत्कृष्ट दया-भाव परमोत्कृष्ट पुण्य का पिता बने यह स्वाभाविक है। - अत सम्पूर्ण विश्व-वत्सलः श्री तीर्थंकर परमात्मा प्रकृष्ट-पुण्य के निधान है-यह विधान प्रक्षरश सत्य होने की वात स्वीकार करनी ही पडती है । स्वार्थ परायणता तो विश्व मे चारो ओर फैली हुई प्रतीत होती है। अधिकतर जीव तो स्वार्थ को केन्द्र मे रखकर ही जीवन-यापन कर रहे हैं। अपना स्वार्थ तनिक भी टकराये तो लाल-पीले होने वाले जीवो की पृथ्वी पर कमी नहीं है। समस्त जीवराशि के हित का द्रोह कराने वाले इस स्वार्थ को देशनिकाला देने की देवी-शक्ति परार्थ-परायणता के परम - शिखर पर सुशोभित श्री तीर्थंकर परमात्मा की भाव-पूर्वक की जाने वाली भक्ति से ही प्रकट होती है । - - . इस विश्व मे परमार्थ की जो गंगा प्रवाहित है उसके जनक श्री तीर्थकर परमात्मा हैं, उनकी उत्कृष्ट भाव-दया है, सकल जीव-लोक की उद्धार करने की परम करुणा है, जीव मात्र को परम स्नेह का दान करने का महा गान है। ... स्वार्थ के विचार मे ही लीन व्यक्ति को पर-हित का विचार, जीवो के कल्याण का विचार अपने स्वार्थ पूर्ण विचार के प्रति सख्त घृणा उत्पन्न होने पर ही आता है। यह उपकारी घृणा श्री तीर्थंकर परमात्मा और उनके वचन आदि वास्तव मे प्रिय लगने पर ही उत्पन्न होती है । । अत कोई शुभ भावना को सस्ती मान लेने की भयंकर भूल न करे । मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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