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________________ युक्त है ऐमी सम्यक् श्रद्धा एव ज्ञान के साथ आत्म-स्वभाव मे स्थिरता, रमणता, तन्मयता प्राप्त हुई हो उसे ही आत्म स्वभाव की प्रानन्दानुभूति होती है। ज्ञान-सुधा के सागर तुल्य पर-ब्रह्म शुद्ध ज्योति-स्वरूप प्रात्म-स्वभाव मे मग्न मुनि को समस्त रूप-रस प्रादि पौद्गलिक विषयो की प्रवृत्ति विष की वृद्धि करने जैसी अत्यन्त भयानक अनर्थ कारक लगती है। आत्म-स्वभाव मे मग्न मुनि को किसी भी पदार्थ का कर्तृत्व नहीं होता, केवल साक्षी ही रहती है । अत. वे तटस्थ रूप से समस्त तत्त्वो के ज्ञाता होते हैं परन्तु वे कर्ता के रूप ये गर्व नही रख सकते । इस प्रकार की ज्ञाता-दृष्टा-भावना उस स्वभाव-मग्न मुनि की अग्रगण्य लाक्षणिकता है। "स्वभाव-सुख मे मग्न साधक ज्ञानामृत का पान करके, क्रिया रूपी कल्पलता के मधुर फलो का भोजन करके, और समता परिणाम रूपी ताम्बूल का आस्वादन करके परम तृप्ति अनुभव करता है।" प्रात्म-साक्षात्कार से होने वाला आश्चर्य इस प्रकार का साधक ही यथार्थ आत्म-सक्षात्कार कर सकता है। जब आत्म-साक्षात्कार होता है तब साधक को "यही मेरा तात्त्विकदर्शन एव तात्त्विक मिलन है" इस प्रकार का परमात्म-स्वर स्पष्टतया हृदयगत होता है, जिससे साधक को अपार आनन्द एव पाश्चर्य होता है। आश्चर्य इस बात का होता है कि 'अहो ! यह तो 'मैं' मुझे ही। नमस्कार कर रहा हूँ। सचमुच, भ्रमर का ध्यान करने से ईयल जिस प्रकार भ्रमरी हो जाती है, उसी प्रकार से परमात्मा का ध्यान करने वाली आत्मा भी परमात्मध्यान से परमात्मा हो जाती है । मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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