SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रसंग-योग प्रात्मिक सुख का अनुभव प्रीति-भक्ति एवं वचन-योन के यथार्थ स्वरूप को जान-समझ कर अब हम असग-योग के यथार्थ स्वरूप को समझें । शास्त्र-सापेक्ष प्रवृत्ति करते समय, परमात्मा के प्रति अतिशय आदरसम्मान वाला साधक जब परमात्म-ध्यान के अभ्यास के द्वारा परमात्म-स्वरूप मे लीन होता है तब उसे अन्तरात्मा मे ही परमात्मा के दर्शन होते है । ध्यान के द्वारा परमात्मा के शुद्ध स्वरूप मे रमण करने वाला ध्याता ध्यान की धारा को अभग-अखड रूप से धारण करता है तब उसे स्वात्मा मे ही परमात्मा के दर्शन होते हैं-यही तात्त्विक परमात्म-दर्शन है । कहा है कि प्रभु निर्मल दर्शन कीजिये, प्रातम ज्ञान को अनुभव दर्शन, सरस सुधा-रस पीजिये. प्रभु निर्मलये पक्तियाँ निर्मल प्रभु दर्शन प्राप्त अनुभव-योगी के अनुभव को प्रतिध्वनित करती हैं। प्रभु का दर्शन प्रात्मा का अनुभव स्वरूप है और वह ठोस प्रात्म-ज्ञान से प्राप्त होता है। प्रात्मानुभव अथवा आत्मज्ञान का ठोस अनुभव ही वास्तविक प्रभु-दर्शन है, जिसकी मधुरता सरस सुधा-रस से भी अधिक है, अर्थात् प्रात्मानुभव का आनन्द अपूर्व कोटि का होता है, शब्दातीत होता है । तीन मिले तर भगवान ७३
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy