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________________ पालने से सचमुच लाभ होगा अथवा नही, होगा तो कितने समय मे होगा ? होने के पश्चात् वह लाभ स्थायी रहेगा अथवा नहीं, वे एक ऐसी उलझन मे फस जाते हैं जिसमे से बाहर निकलना उनके बस की बात नहीं होती। महान् मोह रूपी पहलवान (मल्ल) को मात करने का परम सामर्थ्य केवल श्री जिनाज्ञा मे है, उसके त्रिविध पालन मे है। इस सत्य मे सम्पूर्ण श्रद्धा रखने वाला साधक तो श्री जिनेश्वर देव और उनकी आज्ञा को त्रिविध से समर्पित सद्गुरु को समर्पित होकर साधन-पथ मे अग्रसर होता रहता है और परमात्मा के समीप पहुंचता जाता है । ज्यो-ज्यो वह समीप पहुँचता है, त्यो त्यो उसकी दर्शन, मिलन की अभिलाषा अदम्य होती जाती है, तीव्रतर होती जाती है, स्वरूप-सवेदन अधिक सजीव होता जाता है, आत्मा एव परमात्मा के मध्य की अभेद की अनुभूति जाज्वल्यमान होती जाती है और परमात्मा की आज्ञा मे जो श्रात्मा को परमात्मा बनाने का परम सामर्थ्य होने का शास्त्रीय विधान है वह सर्वथा सही प्रतीत होता है। प्रागमो मे नव-तत्त्व, पड्-द्रव्य, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, क्षायिक आदि पांच भाव, द्रव्य-गुण-पर्याय, पचास्तिकाय, निश्चय-व्यवहार, उत्सर्ग-अपवाद, सप्तनय और सप्त भगी तथा कर्म का जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्वरूप प्रदर्शित किया गया है उसका अन्तिम तात्पर्य यही है कि आत्मा के स्वरूप का वास्तविक परिचय प्राप्त करके, कर्म की परतत्रता से भव-भ्रमण करती हुई आत्मा को भव-बधन से मुक्ति दिलाकर शाश्वत सुख का भोक्ता बनाना। तीन लोको मे सारभूत द्वादशागी है और द्वादशागी का सार निज शुद्ध प्रात्मा है । तीन लोक से आत्मा अधिक है। आत्मा है तो तीन लोको का ज्ञान है । उस ज्ञान की स्वामिनी आत्मा विश्व की स्वामिनी है । द्रव्य से आत्मा ही ऐसी महिमामयी है कि उसके साथ किया गया स्नेह अनन्त लाभ का कारण बनता है। अनन्त अव्यावाध सुख का कारण मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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