SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विशिष्ट ज्ञानी भगवत के अभाव मे भी उनके समान ही सूक्ष्म ज्ञान शस्त्रो के अध्ययन से प्राप्त होता है। केवल-ज्ञानी भगवत केवल-ज्ञान के बल से जैसा प्ररुपण कर सकते है, उसी प्रकार का प्ररूपण श्रुतकेवली भगवत श्रुत के अध्ययन से कर सकते हैं। शास्त्र परमात्मा के वचन का अंग होने से परमात्मा के समान ही पूजनीय है। कहा है कि-"जिनवर जिन प्रागम एक रूपे । सेवता न पड़ो, भव-कूपे ।" तात्पर्य यह है कि स्वय श्री जिनराज के समान उनके वचन और उनके सग्रह के रूप मे आगम भी जीव को भव रूपी अगाध अधकारपूर्ण कुएँ मे गिरने से बचाकर परम-पद पर प्रतिष्ठित करते हैं । ‘एक अपि जिन वचन निर्वाहको भवति' अर्थात् श्रीजिनराज का एक वचन भी उनके अनन्य शरणागत को भव-सागर से पार करता है। श्री जिन-वचन की यह अद्वितीय विशेषता है कि उसे ग्रहण करके ज्यो ज्यो उसका मनन करते हैं, त्यो त्यो उसमे से आत्म-स्नेहवर्धक माधुर्य प्रस्फुटित होता है। जो-जो आत्मा परम-पद को प्राप्त हुई हैं, प्राप्त हो रही है और प्राप्त होगी, वे समस्त श्री जिनोक्त शास्त्राज्ञा के पालन के बल पर ही प्राप्त हुई हैं, प्राप्त हो रही हैं और प्राप्त होगी, यह निस्सन्देह है। सम्यग्-श्रुत (शास्त्र) के यथार्थ अध्ययन के द्वारा विवेक-दृष्टि खुलती . है, जिससे त्याज्य, ग्राह्य एव हिताहित का विवेक उत्पन्न होता है । विवेक से वैराग्य मे वृद्धि होती है, जड पदार्थों के प्रति राग का क्षय होता है और जीव-तत्त्व के प्रति स्व-तुल्य भाव उत्पन्न होता है, जिससे सयम सुदृढ होता है और उसके द्वारा कर्म-शत्रुनो का अन्त किया जा मकता है तया मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy