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________________ अर्थात् जिन्हे श्री वीतराग तीर्थकर परमात्मा के वचनो के प्रति प्रादर, सम्मान, श्रद्धा हो और जो तदनुरूप आचरण करने के लिये सतत प्रयत्नशील हो, उन्होने सचमुच श्री वीतराग तीर्थंकर परमात्मा का ही यथार्थ रूप से सम्मान किया कहा जायेगा और उन्हें समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होगी। ___ शास्त्रो का इतना असाधारण महत्त्व प्रदर्शित करने का उद्देश्य यही है कि भूतकालिक, वर्तमान-कालिक एव भावी समस्त तीर्थंकर देवो की प्राज्ञा नि शक होकर पालन करने की अपार शक्ति प्राप्त होती है। वह आज्ञा यही है कि हेय का त्याग करो, उपादेय का स्वीकार करो। अाश्रव हेय-त्याज्य है, क्योकि वह ससार-वृद्धि का कारण है, जबकि सवर उपादेय है क्योकि वह.मोक्ष का कारण है । एक तीर्थंकर परमात्मा की आज्ञा का सम्मान करने से समस्त तीर्थंकर देवो की आज्ञा का सम्मान होता है और एक तीर्थकर परमात्मा की आज्ञा का अपमान करने से समस्त तीर्थंकर देवो की आज्ञा का अपमान होता है, क्योकि सब कालो के समस्त तीर्थकर देवो की आज्ञा का तात्त्विक स्वरूप एक ही प्रकार का होता है । उसका सार है-आत्म-तत्त्व की आराधना, समस्त जीवो के प्रति आत्मवत् भाव और आत्म-समर्शित्व । शास्त्रों का महत्त्व __ श्री जिन-वचन की अगभूत शास्त्र सापेक्ष क्रियाएं ही सुफल दायिनी सिद्ध होती हैं, शास्त्र निरपेक्ष क्रियाएँ सुफलदायिनी नही होती। शास्त्र बाती एव घी विहीन दिव्य दीपक है।। शास्त्र अहकार रूपी गज का अकुश है । शास्त्र स्वच्छन्दता के ज्वर को उतारने वाली औपधि है । शास्त्र पाप रूपी पक का शोषण करने वाला सूर्य है। शास्त्र पुण्य को पुष्टता प्रदान करने वाला उत्तम रसायन है। मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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