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________________ वचन-योग शास्त्र के सम्मान से परमात्मा का सम्मान परमात्म प्रीति एव भक्ति मे अग्रसर साधक परमात्मा के प्रति तीव्र अनुरागी और दृढ श्रद्धालू बनता है । उक्त अनुराग एव श्रद्धा ज्यो-ज्यो दृढतर होते जाते है, त्यो-त्यो साधक के हृदय मे परमात्मा के वचनो के प्रति सम्मान मे वृद्धि होती जाती है और श्री जिन-प्राज्ञानुसार जीवनयापन करने की लौ लगती है। __ सचमुच, परमात्मा की प्राज्ञा का पालन ही परमात्मा की तात्त्विक सेवा-भक्ति है, क्योकि जब तक पूजनीय व्यक्ति के वचनो पर श्रद्धा नही उत्पन्न होती, तब तक उनकी आज्ञानुसार प्रवृत्ति करने की इच्छा भी नही होती और जव तक उनकी आज्ञानुसार जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति नही होती, तब तक उनकी कृपा एव अनुग्रह प्राप्त करने की भूमिका पर नही पहुँचा जाता । उसके विना साधना-मार्ग में प्रगति नही की जा सकती। किसी सासारिक मनुष्य की कृपा भी उसके अनुकूल चलने वाले मनुष्य , को ही प्राप्त होती है । लोकोत्तर धर्म-मार्ग मे भी यही नियम चलता है। "अाज्ञाराद्धा विराद्धा च, शिवाय च भवाय च ॥" यह सूत्र उक्त नियम का समर्थन करता है। या तो प्राज्ञा मानो और शिव-पद का वरण करो, या आज्ञा का उल्लघन करो और भीषण भव वन मे भटकते रहो। इन दो के अतिरिक्त तीसरा कोई विकल्प नही है। ६२ मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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