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________________ उत्तर-आत्म-ज्ञान अथवा आत्म-स्मरण आदि समस्त प्रकार के योग भी परमात्म-भक्ति से उत्पन्न होने से परमात्म-भक्ति-स्वरूप हैं, क्योकि शास्त्रो मे भक्ति का विशाल अर्थ इस प्रकार स्पष्ट किया गया है। (१) पाश्रव रूपी असयम का त्याग और सवर रूपी सयम का सेवन ही सच्ची परमात्म-भक्ति है । (२) परमात्मा का प्राज्ञा त्रिविध रूप से पालन करना ही उनकी पारमार्थिक भक्ति है। (३) परमात्मा का वचन (शास्त्र) उनकी प्राज्ञा स्वरूप है, अत शास्त्रोक्त (गुरु-विनय, शास्त्र-श्रवण, अहिंसा, सयम और तप आदि) सद् अनुष्ठान भी परमात्मा की आज्ञा का पालन-स्वरूप परम भक्ति है। (४) आत्म-स्वरूप में रमण करना भी परमात्मा की परा-भक्ति स्वरूप है। (५) शास्त्र निर्दिष्ट उत्सर्ग-भाव-सेवा एव अपवाद भाव सेवा का * विस्तृत स्वरूप समझने से ध्यान आयेगा कि चौथे गुण-स्थानक से चौदहवे गुण-स्थानक तक की समस्त प्रकार की साधना भी परमात्म-भक्ति ही है। प्रश्न-श्री जिनागमो मे वर्णन है कि सम्यग-दर्शन की प्राप्ति गुरुउपदेश (अधिगम) और सहज स्वभाव (निसर्ग) से भी हो सकती है। उसमे अनायास ही प्राप्त होने वाले सम्यग् दर्शन के लिये तो परमात्म-भक्ति की कोई श्रावश्यकता नही पडती न ? उत्तर--परमात्मा की भक्ति के बिना कोई भी गुण प्रकट हो ही नही सकता । अत. सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति के समय भी प्रत्येक जीव जब परमात्मा उत्सर्ग भाव सेवा और अपवाद भाव सेवा का स्वरूप समझने के लिये पढे-- 'परमतत्त्व की उपासना' लेखक--पूज्य आचार्य श्री कलरपूर्ण सूरीश्वर जी म मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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