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________________ ही होते है; परन्तु जितना विश्वास उसे भगवान पर होता है उतना अन्य किसी पर नहीं होता। परमात्मा ही मेरी समग्र साधना एव आराधना के केन्द्र हैं । वे समस्त कामनाओ को पूर्ण करने वाले, आपत्तियो को नष्ट करने वाले और समस्त सम्पत्ति के समर्थक हैं - ऐसी दृढ एव अटूट श्रद्धा भक्त के हृदय मे होती है। श्रद्धा-विहीन भक्ति कदापि फल-दायिनी नही हो सकती। अकल्पनीय शक्ति-सम्पन्न श्री अरिहन्त परमात्मा की परम तारक शक्ति मे तनिक भी शका रखना महान् दोप है, मिथ्यामति की विकृतता है । तात्पर्य यह है कि भक्त को भगवान के प्रति पूर्ण श्रद्धा ही होनी चाहिये, होती है। __ ऐसी श्रद्धापूर्ण भक्ति जिस व्यक्ति के अन्तरोद्यान में प्रकट होती है, प्रसारित होती है, उसका समग्र जीवन सद्भाव की अलौकिक सौरभ से महक उठता है । उसके समस्त भाव सत् मे ही केन्द्रीयभूत होते हैं। भाव प्रदान करने की शक्ति से शून्य ऐसे असत् पदार्थों के प्रति वह तनिक भी ममत्व नही रखता। इस प्रकार का भक्त भक्ति मे तन्मय होकर स्व-जीवन को धन्य-धन्य बना लेता है और वह भक्ति की साधना मे अहर्निश प्रगति करता रहता है। प्रभु मिलन की प्यास भक्त को भगवान के प्रति प्रीति और भक्ति है, परन्तु प्रीति-भक्ति के भाजन स्वरूप परमात्मा प्रत्यक्ष नहीं होने से कभी कभी वह व्याकुलता अनुभव करके प्रभु को प्रश्न पूछ बैठता है कि-हे प्रभो ! आपका और मेरा मिलन (माक्षात्कार) होगा या नही ? आपकी और मेरी प्रीति अटूट रहेगी या नहीं ? क्योकि आपके और मेरे मध्य सात राजलोक का दीर्घ अन्तर है, १४ मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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