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________________ है, चित्त मे प्रमन्नता की सौरभ छा जाती है, पाप का नाश और पुण्य का सचय होता है। अत परमात्मा के नाम का स्मरण (जाप) और परमात्मा की प्रतिमा का पालम्बन भी साक्षात् परमात्मा के पालम्बन जितना ही फलदायी है, इस शास्त्र-वचन मे पूर्ण श्रद्धा रख कर हमें उनकी अनन्य भाव से उपासना करनी चाहिये । शास्त्रो मे श्री जिन प्रतिमा को जिन समान कही गई है और उनके पुण्य-नाम का मत्र के रूप में परिचय कराया गया है। यह तथ्य एक ओर एक दो के जितना ही सही है। इस तथ्य के समर्थन मे कहा भी है कि दर्शनाद दूरित ध्वंसी, वदनात् वाच्छितप्रद । पूजनात् पूरक श्रीणा-जिनः साक्षात् सुरद् म ॥ अर्थ ---दर्शन मात्र से दूरित (पाप) का नाश करने वाले, वन्दन से वाछित देने वाले, पूजन से लक्ष्मी के पूरक श्री जिनेश्वर भगवान साक्षात् कल्पवृक्ष के समान हैं। तो साक्षात् कल्प-वृक्ष प्राप्त होने से गृहस्थ को जितना हर्ष होता है, उतना हर्ष परम कोटि के कल्पवृक्ष तुल्य श्री जिनेश्वर देव के प्रतिमा के दर्शन से होने लगे तो समझना चाहिये कि हमे प्रतिमा मे स्वय श्री जिनेश्वर देव देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। श्री जिन-प्रतिमा मे श्री जिनेश्वर देव के दर्शन करने वाले व्यक्ति को उसके पुण्य के प्रभाव से उपर्युक्त श्लोक मे वर्णित अनुभव हुए बिना नही रहता। ३२ मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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