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________________ अन्य अल्पात्मा की दासता स्वीकार करने से दूर होने की सम्भावना नहीं है, परन्तु परिपूर्ण ज्ञानी परमात्मा की दासता ही उसे दूर कर सकती है, ऐसा दृढ निश्चय कराता है अत. साधक मनुष्य श्री अरिहन्त परमात्मा का दास बने बिना रह नहीं सकता । श्री अरिहन्त परमात्मा को ही सर्वस्व मानकर जीवन नीने मे ही वह अपना जीवन सार्थक मानता है। -- (७) जिस परमात्मा मे विज्ञान (केवलज्ञान), आनन्द एव ब्रह्म एक रूप हो गये हैं. उस परमात्मा के गुण-गान इस स्तोत्र द्वारा करके मैं अपनी वाणी को पवित्र करता हूँ। विज्ञान शब्द अनन्त ज्ञान, आनन्द शब्द अव्यावाध सुख और ब्रह्म शब्द स्वरूप-दर्शन एव स्वरूप-अवस्थान रूपी अनन्त दर्शन एव अनन्त चारित्र का द्योतक है। इस प्रकार के अनन्त ज्ञान प्रादि चतुष्टय के स्वामी परमात्मा की स्तुति करने से वाणी पवित्र होती ही है । पूर्ण पुरुष की पूर्णता का गान स्व प्रात्मा की अपूर्णता का ध्यान दिलाने में अनन्य सहायक होता है और स्व आत्मा को पूर्णता प्राप्त करने की पावन प्रेरणा का दान करता है। इस प्रकार के परम-गुणी, परम कृपालु परमात्मा सूर्य की तरह अपने . स्वभाव से ही समग्र विश्व पर अपना परम पावन प्रकाश प्रसारित करके समस्त प्राणियो को पावन बनाने का स्वाभाविक सामर्थ्य रखते हैं। मधुरता का दान करने के लिये शर्करा को कुछ भी करना नही पडता। वह मधुरता तो उसके कण-कण मे व्याप्त है, परन्तु जिस मनुष्य को उस मधुरता की अावश्यकता होती है, वह उक्त शर्करा को हाथ मे लेकर मुह मे डालता है तब उने मधुरता का अनुभव होता ही है, उसी प्रकार से करुणा निधान श्री अरिहन्त परमात्मा को प्राणी को पूर्ण एव पावन बनाने के लिये कुछ भी करना नही पडता। जिस व्यक्ति को वैचारिक अपवित्रता खलती है, स्वार्थ मस्तक-शूल की तरह वेदना पहुँचाता है, पाप आंख मे गिरे कण की तरह चुभता है, वैमा मुमुच भाव पूर्वक श्री अरिहन्त परमात्मा की शरण ग्रहण करके उनकी पावन करने वाली प्रकृति का अनुभव कर सकता है। मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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