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________________ प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी अजरामरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थश्च चिन्तयेत् । गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत ॥ बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि वह विद्या तथा धन को प्राप्त करने । के लिये अपने को कभी वृद्ध न होने वाला तथा अमर मान ले । (क्योंकि ऐसा मान लेने से विद्या तथा धन प्राप्त करने में उत्साह बना रहेगा)। किन्तु धर्म का प्राचरण यह समझ कर करे कि मृत्यु ने श्राकर मेरे केशों को पकड़ लिया है। क्योकि पुरुष अन्त समय में अवश्य ही धर्माचरण करना चाहता है)। ___यह पीछे वतला दिया गया है कि बालक के गर्भ में आते ही माता की शिक्षा आरम्भ हो जाती है, जो पांच वर्ष की आयु तक चलती है। उसके पश्चात् दो तीन वर्ष तक पिता की शिक्षा चलती है। प्राचीन काल में पिता की शिक्षा को विशेष महत्व दिया जाता था और वह सात वर्ष की आयु तक चलती थी। अक्षरारम्भ कराना तथा अपनी मातृभाषा का लिखने पढ़ने योग्य ज्ञान करा देना पितृ शिक्षा के अन्तर्गत था। किन्तु उस प्राचीन काल में भी हम अक्षरारम्भ के कार्य को पिता के द्वारा न किया जाकर अन्य गुरुओं द्वारा कराया जाता हुआ पाते हैं। तो भी यह शिक्षा पिता की देख रेख में होती थी। इस लिये भी इसे पितृ शिक्षा कहा जाता था। इसके पश्चात् बालक को विशेष अध्ययन के लिये किसी गुरुकुल अथवा तक्षशिला जैसे विश्व विद्यालय में भेज दिया जाता था। प्राचीन भारत में कभी २ योग्य गुरु स्वयं भी योग्य शिष्यों की तलाश में घूमा करते थे। जैसे कि चाणक्य द्वारा चन्द्रगुप्त को उसके माता पिता से मांगने आदि की अनेक कथाएं हमारे शास्त्रों में भरी पड़ी हैं। अस्तु उसी परिपाटी का अनुसरण करके हमारे चरित्र नायक श्री सोहनलाल जी का सातवें वर्ष में अक्षरारम्भ किया गया।
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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