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________________ ४४ महाप्रयाण जीवियं नाभिकखेज्जा, मरणं लो वि पत्यए। दुहरो वि न सज्जेज्जा, जीविए मरणे तहा ॥ आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कन्ध, अध्ययन ८, उद्देशक ८ साधक न तो जीवित रहने की लालसा रक्खे और न मरने की ही इच्छा करे । जीवन और मरण में से किमी में भी आसक्कि न करे । __ संसार का यह नियम है कि उसमे उत्पन्न होने वाली प्रत्येक वस्तु का विनाश होता है। सृष्टि के इस अनादिकालीन नियम से कोई वस्तु भी नहीं बच सकती । सुमेरु पर्वत जैसी जो वस्तुएं हमको सदा एक सी ही दिखलाई देती हैं, उनमें भी प्रतिक्षण असंख्यात परमाणुओं का परिणमन होता रहता है। किसी मकान को कितनी ही मजबूती से बन्द कर देने पर भी उसमें कहीं न कहीं से आकर धूल तथा मिट्टी जम ही जाती है। जीवित प्राणियों के विषय में तो यह नियम और भी अधिक ठीक बैठता है। प्रत्येक प्राणी का जन्म मरने के लिए ही होता है। जैसा कि गीता में भी कहा गया है "उत्पादस्य ध्र वो मृत्युः" उत्पन्न होने वाले की मृत्यु अवश्यंभावी है।
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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