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________________ 2 . मुनि शुक्लचन्द्र जी की दीक्षा ३३३ अब रामजी लाल ने श्री पूज्य महाराज से शुक्लचन्द्र जी को दीक्षा देने की प्रेरणा की। क्योंकि आपके बालिग होने के कारण आपके संबंध में आपके माता पिता की अनुमति की आवश्यकता नहीं थी। श्री पूज्य महाराज के सहमत होने पर रामजी लाल ने शुक्ल चन्द्र जी से कहा___ "शुक्लचन्द्र जी! अभी आप दीक्षा ले लो। दीक्षा मुझको भी शीघ्र ही लेनी है, किन्तु मुझे अभी अपने पुत्र का विवाह करना है। अस्तु मैं उसका विवाह करने के उपरांत दीक्षा लूगा। आपके स्वीकार करने पर दीक्षा का सब सामान मंगवा लिया गया। अब आपसे पूज्य श्री ने पूछा। "क्यों शुक्लचन्द्र ! क्या तुम जैन दीक्षा लेना चाहते हो ?" आपने उत्तर दिया '"जी हां, मैं अपनी इच्छा से दीक्षा लेना चाहता हूं।" पूज्य महाराज ने यही प्रश्न दो बार और भी किया और आपने तीनों बार एक ही उत्तर दिया। अस्तु आपको आषाढ़ शुक्ल पूर्णमासी संवत ६६७३ को दोपहर सवा तीन बजे पूज्य श्री ने स्वयं दीक्षा देकर तपस्वो मुनि रतन चन्द जी महाराज का शिष्य बनाया। अब आपको योग्य शिष्य बनाने की भावना से उनसे प्रकृति मिलाने के लिये आपको तपस्वी जी से ही पठन पाठन करवाने लगे। मुनि रतनचन्द जी बड़े भारी तपस्वी थे। उन्होंने पैमठ २ दिन तक के उपवास कई २ वार किये थे। पूज्य महाराज की
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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