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________________ २८६ प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी अताउल्ला--स्वामी जी! आपने आज मेरी आंखें खोल दी। धर्स के असली तत्व को मैं अब समझा हूं। तव तो महाराज ईश्वर को दुनियां का बनाने वाला भी नहीं सानना चाहिये ? युवाचार्य जी-जैन धर्म ईश्वर को सृष्टिकर्ता नहीं मानता। उमका सिद्धान्त है कि संसार के वनाने या उसको नष्ट करने से ईश्वर का कोई सम्बन्ध नहीं। ईश्वर तो आत्मा की सबसे ऊंची अवस्था का नाम है और प्रत्येक व्यक्ति यत्न करके उस दर्जे तक पहुंच सकता है। अताउल्ला-क्या महाराज ! मैं भी खुदा के दर्जे तक पहुंच सकता हूं? युवाचार्य जी-निश्चय से। अताउल्ला-वह किस प्रकार ? युवाचार्य जी-आपको प्रथम श्रावक के बारह व्रतों को धारण करना चाहिये । वह बारह व्रत भी अकेने अहिंसा में ही आ जाते हैं। इसके बाद युवाचार्य महाराज ने मौलवी अताउल्ला के सामने श्रावक के वारहों व्रतों का विस्तार पूर्वक व्याख्यान किया। उनको सुन कर मौलवी वोला अताउल्ला-महाराज! मैं तो आज समझा कि संसार में यदि कोई धर्म है तो जैन धर्म है। मेरा अहोभाग्य है कि में आपके पास आया। आत्मारामजी सवेगी के बाद आपके पास तो मैं इस आशा से आया था कि आपको बहस मुबाहिसे में हरा दूंगा। किन्तु आप तो बहस न करके दिल पर अधिकार करते है। अच्छा अव श्रावक के बारह व्रत दे कर आप मुझे भी अपना शिष्य बना लें।
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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