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________________ २५८ प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी पूज्य श्री-विना अभियातकों की आज्ञा प्राप्त हुए नैन साधु किसी को भी अपना शिष्य नहीं बनाते। अतः पहिले अपने माता पिता की आज्ञा प्राप्त करो। नौबत-बिना आज्ञा शिष्य बनाने से क्या वाधा है ? पूज्य श्री-यह भी एक चोरी है। साधु को प्रत्येक प्रकार की चोरी का यावज्जीवन त्याग होता है। नौवत-यदि आना न मिले तो? पूज्य श्री-तो का क्या प्रश्न ? लगन होने पर सब कुछ, मिल सकता है । यह ध्यान रहे कि अन्दर की ज्वाला बुझने न पावे। नौबतराय के पिता पं० शिवजीरास इन दिनों राता गांव छोड़ कर फगवाड़ा आगए थे। एक बार वह नौवतराय को दिल्ली से समझा बुझा कर फावड़ा ले आए। इस बार नौबतराय ने अपने विचार उनके सामने अत्यन्त दृढ़तापूर्वक रख दिये। अब समझाने बुझाने से हार कर उसके साथ अत्यधिक कठोर व्योहार किया गया। मारना, पीटना, भूखे रखना आदि अनेक प्रकार के अत्याचार उनके साथ किये गए। जब वह इस प्रकार भी न सानते तो उनको कोठे में बन्द करके बाहिर से ताला जड़ दिया जाता था। इस प्रकार उनके ऊपर मर्यादा से अधिक अत्याचार किये गए। किन्तु वह अपने निश्चय से तिल मात्र भी न डिगे। अन्त में वह एक बार अवसर पाकर वहां से फिर अकेले ही निकल भागे। वह मार्ग की आपत्तियों को सहन करते हुए दिल्ली में लाला पन्नालाल की दूकान पर ही आ गये। लाला पन्नालाल ने उनके सारे वृतान्त को सुन कर उनसे कहा
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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