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________________ २०६ प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी व्यवहार देख कर अपने कष्ट को भूल गया। उस अत्यधिक कष्ट के समय भी उसके मुख पर आनन्द एवं शांति की श्राभा छा गई। उसके नेत्रों से आनन्द के अश्रु वह निकले। अपने रक्षक के प्रति श्रद्धा से उसका हृदय परिपूर्ण हो उठा। उसने गदगद कंठ से कहा ___"भाई ! मेरा तो सारा जीवन ही कष्ट में वीता है। तुम मेरे लिये क्यों कष्ट कर रहे हो। तुम्हारे वस्त्र तो निश्चय ही रक्त और पीप से भर गए होंगे। मैं तुम्हारी सेवा को जन्मभर __ नहीं भूलूगा । अब मैं होश में हूं। अतएव अव तुम प्रसन्नता पूर्वक जा सकते हो।" इस पर सोहनलाल जी ने उत्तर दिया __ "भाई ! मैं भगवान महावीर का सेवक हूं। मुझे अपने माता पिता से यही शिक्षा मिली है कि 'आत्मकल्याण करने की इच्छा वाले को दूसरों को सुखी बनाने के लिये अपने सुखों का बलिदान करना सीखना चाहिये। उसको उचित है कि वह दूसरों के सुख को अपना सुख माने और दूसरों के दुःख को दूर करने का सदा प्रयत्न करता रहे। अतएव• मेरे भाई, यह वस्त्र तो क्या चीज हैं यदि मेरा सारा शरीर भी रक्त पीप से भर जावे तब भी मैं सेवा से मुख नहीं मोड़गा।" ऐसा कह कर उन्होंने दूध मगवा कर उसको प्रेमसहित पिलाया। फिर वह उसे तांगे में लेटा कर अस्पताल ले गए। उन्होंने अपने पैसे से उसके लिये नवीन वस्त्र वनवाए तथा डाक्टर को भी रुपया दे कर इस बात का प्रबंध कर दिया कि अस्पताल में उसकी ठीक ठीक सेवा सुश्रषा होती रहे । उस अंधे को जब तक आराम नहीं हुआ सोहनलाल जी उसे सांत्वना देने के लिये प्रति दिन अस्पताल जाते रहे। उनके ऐसे अलौकिक
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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