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________________ जितेन्द्रियता १६३ ऐसा कौन व्यक्ति है जो स्त्री के नयनबाण से घायल हो कर न छटपटाने लगे।" भला उस बेचारी को यह क्या पता था कि सोहनलाल जी का हृदय जहां दुःखियों का दुःख दूर करने के लिए मक्खन से भी कोमल था, वहां पाप कार्यों का निषेध करने के लिए वह वज्र से भी कठोर था। अस्तु उस युवती का मनमयूर नाच उठा और वह हर्षोत्फुल्ल नेत्रों से उनकी ओर देखती हुई कहने लगी ___ युवती-विलम्ब का क्या काम । आप इस कार्य को शीघ्र से शीघ्र करें। यह सुन कर सोहनलाल जी ने उत्तर दिया । सोहनलाल जी-देखो, यह कोई निश्चय नहीं है कि स्त्री पुरुष के समागम से संतान अवश्य हो । यदि संतान हो भी जावे तो यह आवश्यक नहीं है कि पुत्र ही हो। यदि पुत्र भी हो जावे तो यह निश्चय नहीं कि वह मुझ जैसी आकृति वाला ही हो। यदि मेरे जैसी आकृति भी हो गई तो यह आवश्यक नहीं कि वह मेरे जैसा गुणवान् भी हो। अतएव तुम आज से मुझे ही अपना पुत्र समझो। मैं आज से तुम को अपनी माता लक्ष्मी देवी के समान ही समझूगा। ऐसा कह कर सोहनलाल जी ने अपना मस्तक उस युवती के चरणों में रख दिया। सोहनलाल जी के उपरोक्त वचनों को सुन कर तथा उनको अपने चरणों में गिरते देख कर युवती को बड़ा भारी आश्चर्य हुआ। अब वह पश्चात्ताप की अग्नि में जलती हुई अपने नेत्रों से आंसू बहाती हुई सोहनलाल जी से बोली ___ 'सोहनलाल जी ! तुमको धन्य है। धन्य है तुम्हारी माता को। मैं आज से प्रतिज्ञा करती हूं कि कभी भूल कर भी अपने
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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