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________________ स्वधर्मीवत्सलता १५५ इस पर बहिन ने मुस्करा कर कहा "भाई ! मैं तो सोच रही थी कि तुम कोई बड़ी भारी वस्तु मांगोगे। आप के हाथ में राखी बांधना तो मेरा परम सौभाग्य है। ऐसी कौन आर्य स्त्री है, जो तुम जैसे सर्वगुणसम्पन्न पुरुष को अपना भाई बनाने में सौभाग्य न समझे।" यह कह कर उसने अपने हाथ में एक अत्यन्त सुन्दर राखी ले कर उसे सोहनलाल जी के हाथ में बांधने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया। उसके राखी बांधने को हाथ आगे बढ़ाने पर सोहनलाल जी बोले सोहनलाल-बहिन तनिक ठहरो। सोहनलाल जी के ऐसा कहने पर वह अपने बढ़े हुए हाथ को रोक कर चकित नेत्रों से अपने नवीन भाई की ओर देखने लगी। तब सोहनलाल जी ने कहा ___'बहिन ! मैं तुम्हारे हाथ से राखी तभी बंधवा सकता हूँ जब तुम इस बात की प्रतिज्ञा करो कि तुम अपने सगे भाइयों तथा मुझ में कुछ भी अंतर न समझोगी तथा इस घर को अपना पीहर मान कर यहां उसी प्रकार प्रेमपूर्वक आया करोगी।' सोहनलाल के इन वचनों को सुन कर उस बहिन ने उत्तर दिया "मैं प्रतिज्ञा करती हूं कि आप को सदा अपने सगे भाई के ही समान माना करूगी और इस घर को भी अपना पीहर मान कर यहां बराबर प्रेमपूर्वक आया जाया करूंगी।" ऐसा कह कर उसने अपने हाथ से सोहनलाल जी के हाथ में राखी बांध दी। इस घटना से दोनों को ही अत्यधिक
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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