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________________ १४७ द्वादश व्रत ग्रहण करना "धन्य है इन पवित्र आत्माओं को, जिन्होंने सभी के लिये एक आदर्श उपस्थित किया है।" इस पर आचार्य महाराज ने सोहनलाल जी से कहा "अच्छा सोहनलाल ! अब तो तुमने व्रत ग्रहण कर लिये। अब तुम प्रथम रमणीक बन कर बाद में अरमणीक मत बनना।" इस पर सोहनलाल जी ने उत्तर दिया "गुरुदेव ! जिस उपवन को समय पर पानी मिल जाता है वह कभी भी अरमणीक नहीं होता, वरन् वराबर फूलता फलता रहता है। इसी प्रकार जब आप जैसे पवित्र आत्मा मेरे जैसे नवीन अंकुर का अपनी अमृतमय वाणी से सिंचन करती रहती है तो यह शिष्य किस प्रकार अरमणीक बन सकता है ? इस प्रकार सोहनलाल जी श्रावक के द्वादश व्रतों को अंगीकार करके उनका निरतिचारपूर्वक पालन करते हुए प्रतिदिन दोनों समय प्रतिक्रमण तथा सामायिक करने लगे। वह एक मास में चार पौषध भी किया करते थे। इस प्रकार वह शुद्ध भावना में अपना समय व्यतीत करने लगे। यह घटना संवत् १६२५ की है।
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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