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________________ १२६ प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जो मिथ्यात्व अन्धकारमय अन्त.करण में ज्ञानरूपी सूर्य का प्रकाश करती थीं। लोग कहते थे कि ऐसा व्याख्यान हमने आज तक कभी भी नहीं सुना । व्याख्यान क्या है अथाह अमृत की वर्षा है। यदि उसकी एक भी बूद हृदय में उतर गई तो बस बेड़ा पार है। महासती के व्याख्यान की इस प्रकार की प्रशसा सुन कर पसरूर की जैन तथा जैनेतर जनता उपाश्रय की ओर चली जा रही है। हमारे चरित्रनायक श्री सोहनलाल जी भी इस संवाद को सुनकर इस अमूल्य अवसर से लाभ उठाने के लिये आसन आदि सामायिक के उपकरणों को लेकर घर से निकल कर उपाश्रय मे पहुच गए। उन्होने वहां जाकर सभी सतियों को विधिसहित सविनय पांचों अंग नमा कर वंदन किया। इसके पश्चात् वह वहां पर उपस्थित सभी भाइयों को 'जय जिनेन्द्र' कह कर सामायिक के व्रत को अंगीकार कर सीप सहश उपदेशामृत की प्रतीक्षा करने लगे। ___ कुछ समय के उपरांत महासती निर्दिष्ट समय पर पधारी। उनके मुख पर ब्रह्मचर्य का अद्भुत तेज चमक रहा था। उनकी शान्त मुद्रा को देखकर विद्व पी मनुष्य का हृदय भी शान्त हो जाता था। उन्होंने सुमधुर गभीर ध्वनि के साथ निम्न प्रकार से मंगलाचरण करके देशना देनी आरम्भ कीलद्ध ण वि माणुसत्तणं, आरिअत्तं पुणरवि दुल्लहं । बहवे दसुया मिलक्खुया, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन १०, गाथा १६ । मनुष्य भव पाकर भी अनेक जीव चोर बनते हैं अथवा म्लेच्छ भूमियो में जन्म लेते हैं। इससे प्रार्यभाव (आर्य भूमि के वातावरण) का मिलना अत्यन्त दुर्लभ है । इसलिये हे गौतम ! तू समय का प्रमाद न कर।
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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