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________________ ११२ प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी पर उन्होंने उसकी बोरियां भी उसकी गाड़ी पर लदवादीं। उनके इस व्यवहार को देख कर किसान मन मे कहने लगा । "निश्चय से यह कोई देव है, जो मनुप्य का रूप धारण कर मेरी सहायता करने के लिए आया है।" यह विचार करते २ किसान का हृदय सोहनलालजी के लिये कृतज्ञता से भर गया । इस समय सोहनलाल जी ने कृपक स कहा "भाई । यदि मतुप्य अपना भला चाहता है तो उसे चाहिये कि प्रथम सबका भला चाहे और सबके पश्चात् अपना भला चाहे । ऐसा करने से उसका निश्चय से भला होगा। तुझे तो उस सेठ का भी बुरा नहीं चीत कर उसका भी भला होने की इच्छा करनी चाहिये।" ऐसा कह कर सोहनलालजी घोड़े पर चढ़ कर धीरे २ कृपक की गाड़ी के साथ चलने लगे। वह थोड़ा ही आगे बढ़े होंगे कि उन्होंने सड़क पर एक डव्चा पड़ा हुआ देखा । डब्बा मोने के आभूषणों से भरा हुआ था। उसे देखकर कृपक की आंखें आनन्द से चमक उठीं। वह प्रसन्न होकर सोहनलालजी से वोला "निश्चय से यह डब्बा उसी सेठ का है। मुझे सताने का फल उसको हाथों हाथ मिल गया।" इस पर सोहनलालजी ने उसको उत्तर दिया। "भाई ! ऐसी भावना मन मे मत रक्खो । जो व्यक्ति दूसरे की हानि को देखकर प्रसन्न होता है वह व्यर्थ ही पाप कर्म का उपार्जन करता है। अपनी इस भावना का उसको अगले जन्म मे भी बुरा फल भोगना पड़ता है। वास्तव मे तुम्हारी परीक्षा का यही समय है। धर्म का फल सदा मीठा होता है।
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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