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________________ प्रधानाचार्य श्री मोहनलाल जी चंचलता उनमें कम नहीं थी। वालसखाओं के वाहिर खड़े होने के कारण उनके मन में कुछ जल्दीबाजी भी थी। फिर उनको स्वयं भी खेल की उसंग कम नहीं थी। श्रतएव ऐसी अवस्था में किसी भी बालक द्वारा व्यवस्थित ढंग से कार्य नहीं किया जा सकता। बालसखाओं से छूट कर वह दौड़ते हुए घर के अन्दर पहुंचे । उस समय कमरे में कोई भी नहीं था और गेंद अलमारी में रक्खी हुई थी। अतएव अलमारी में से शीघ्रतापूर्वक गेद निकालते हुए उनके हाथ से अलमारी में से निकल कर एक ऐसा अमूल्य दर्पण गिर कर टूट गया, जिस से पक्षाघात अथवा अधरंग रोग ठीक हो जाता था। इसीलिये उस शीशे को पक्षाघात दर्पण ( Paralysis Glass) कहा जाता था । यदि किसी पक्षाघात वाले रोगी का मुख टेढ़ा हो जाता था तो उस दर्पण को दिखलाने से उनका मुख ठीक हो जाता था। वह गेद के पास उसी अल्मारी में रक्खा हुआ था। शीशा जल्दीबाजी में उन से भूमि पर गिर पड़ा और गिरते ही टूट गया। सोहनलाल जी उस शीशे के टुकड़ों को वहीं एकत्रित करके विना किसी से कुछ भी कहे हुए अपने वालसखाओं के पास चले आए और खेल मे लग गए। कुछ समय के उपरांत जव शाह मथुरादास जी कमरे में आए तो उन्होंने उस दर्पण के टूटे हुए टुकड़ों को देखा। इस घटना से उनको अत्यधिक खेद हुआ। दर्पण वास्तव में इतना मूल्यवान् था कि इस महान् वैजानिक युग में भी वैसा दर्पण मिलना असम्भव नहीं तो अत्यन्त कठिन अवश्य है । फिर यह तो अब से लगभग सौ वर्ष पूर्व की घटना है । उस समय तो ऐसी वस्तु का प्राप्त होना अत्यन्त ही कठिन समझा जाता था। वह दर्पण भी उनको किसी अंग्रेज
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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