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________________ श्री समवशरण पूजन सर्व चेष्टा रहित पूर्णा निष्क्रिम हो तु कर निज का ध्यान । दश्य जगत के भ्रम को तज दें पाऐगा उत्तम निर्वाण ।। चौथे मे ज्योतिषी देवियाँ पचम व्यतर देवि अमेव । षष्टम भवनवासि की देवी सप्तम भवनवासि के देव।।२१।। अष्टम व्यतर देव बैठते नवम ज्योतिषी देव प्रसिद्ध । दसवे कल्पवासि सुर होते ग्यारहवे मे मनुज प्रसिद्ध ।।२२।। बारहवे कोठे मे बैठे हैं तिर्यंच जीव चपचाप । तीर्थकर की ध्वनि सुन सब हर लेते है मन का सताप ।।२३।। प्रभु महात्म्य से रोग मरण आपत्ति बेर तृष्णा न कही । काम क्षुधा मय पीडा दुख आतक यहाँ पर कही नहीं ।।२४।। पचमेस के क्षेत्र विदेहो मे है समवशरण प्रख्यात । विद्यमान तीर्थकर बीस विराजित है शाश्वत विख्यात ।।२५।। प्रभु की अमृत वाणी सुनकर कर्ण तृप्त हो जाते है । जन्म जन्म के पातक क्षण मे शीघ्र विलय हो जाते है ।।२६।। जब बिहार होता है प्रभु का सुर रचते है स्वर्ण कमल । जहाँ जहाँ प्रभु जाते होती समवशरण रचना अविकल २७।। ममवशरण रचना का वर्णन करने की प्रभु शक्ति नही । सोलहकारण भव्यभावना भाए बिन प्रभु भक्ति नही ।।२८।। ऐसी निर्मल बुद्धि मुझे दो निज आतम का ज्ञान करूँ । समवशरण की पूजन करके शुद्धातम का ध्यान करूं ।।२९।। पाप पुण्य आश्रव विनाशकर रागद्वेष पर जय पाऊँ।। कर्म प्रकृतियो पर जयपाकर सिद्धलोक मे आजाऊँ।।३०।। 30 ही श्री समवशरण मध्यविराजमान जिनेन्ददेवाय अनयंपदप्राप्तयेअर्घ्य समवशरण दर्शन करूँगाऊमगल चार । भेदज्ञान की शक्ति से हो जाऊँभवपार । । इत्याशीवाद जाप्यमन्त्र - ॐ ही श्री समवशरण मध्यविगजमान अर्हन्तदेवाय नम ।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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