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________________ - श्री रत्नत्रयधर्म पूजन वस्तु त्रिकाली निरावरण निदोप सिद्ध सम शुद्ध है । द्रव्य दृष्टि बनने वाला ही होता परम विशुद्ध हे ।। एक शुद्ध निज चेतन शाश्वत दर्शन ज्ञान स्वरूपी जान । ध्रुव टकोत्कीर्ण चिन्मय चित्चमत्कार विद्वपी मान ।।४।। इसका ही आश्रय लेकर मै मदा इसी के गुण गाऊँ। द्रव्यदृष्टि बन निजस्वरूप की महिमा से शिवसुखपाऊँ ।।५।। रत्नत्रय को वन्दन करके शुद्धात्मा का ध्यान करूं। मम्यक दर्शन ज्ञान चम्ति से परम स्वपद निर्वाण वरूँ।।६।। ॐ ही सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्रमयी रत्नत्रय धर्म यो अर्घ्य निर्वपामांति स्वाहा । रत्नत्रय व्रत श्रेष्ठ की महिमा अगम अपार । जो व्रत को धारण करे हो जाये भव पार ।। इत्याशीर्वाद आाग्यमन्त्र ॐ ह्री श्री सम्यक दर्शनज्ञानचारित्रभ्यो नम जय बोलो सम्यक दर्शन की जय बोलो सम्यक दर्शन की रन्नत्रय के पावनधन की, यह मोह ममत्व भगाता है, शिवपथ मे सहज लगाता है । जय निज स्वभाव आनन्द धन जी जय बोलो ।।१।। परिणाम सरल हो जाते हे. सार मकट टल जाते है ।। जय सम्यक ज्ञान परमधन की जय बोलो ।।२।। जय तप सयम फल देते है भव की बाधा हर लेते है । जय सम्यक चारित्र पावन की ॥ जय बोलो ।।३।। निज परिणति रुचि जुड़ जाती है कर्मों की रज उड जाती है । जय जय जय मोक्ष निकेतन की ॥ जय बोलो।।४।।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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